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________________ कर्म-मीमांसा (लेखक-पंजाब प्रवर्तक उपाध्याय श्रमण श्री फूल चन्द जी महाराज) जैन शास्त्रों का विषयनिरूपण सर्वांगपूर्ण है। जड़-चेतन, आत्मा-परमात्मा, दुःखसुख, संसार-मोक्ष, आस्रव-संवर, कर्मबन्ध तथा कर्मक्षय इत्यादि समस्त विषयों का जितना सूक्ष्म, गंभीर और सुस्पष्ट विवेचन जैनागमों में है उतना अन्यत्र मिलना कठिन है। जैन विचारधारा विचार-जगत् में और आचार-जगत् में एक अपूर्व प्रकाश डालने वाली है। हम साधारणरूप से जिस को विचार समझते हैं वह विचार नहीं, वह तो स्वच्छन्द मन का विकल्पजाल है। जो जीवन में अद्भुतता, नवीनता और दिव्य दृष्टि उत्पन्न करे वही जैन विचारधारा है। - जैनसूत्र भूले भटके भव्य प्राणियों के लिए मार्गप्रदर्शक बोर्ड हैं, उन्मार्ग से हटा कर सन्मार्ग की ओर प्रगति कराने के लिए ही अरिहंत भगवन्तों ने मार्गप्रदर्शक बोर्ड स्थापन किया है। सूत्र वही होता है जो वीतराग का कथन हो। तर्क या युक्ति से अकाट्य हो। जो प्रत्यक्ष या अनुमान से विरुद्ध न हो। कुमार्ग का नाशक हो, सर्वाभ्युदय करने वाला हो और जो सन्मार्ग का प्रदर्शक हो। इत्यादि सभी लक्षण श्री विपाकसूत्र में पूर्णतया पाए जाते हैं अतः जिज्ञासुओं के लिए प्रस्तुत सूत्र उपादेय है। - इस सूत्र का हिन्दी अनुवाद प्रतिभाशाली पण्डितप्रवर श्री ज्ञान मुनि जी ने किया है। अनुवाद न अति संक्षिप्त है और न अति विस्तृत। अध्ययन करते हुए जिन-जिन विषयों पर जिज्ञासुओं के हृदय में संदेह का होना संभव था उन-उन विषयों को मुनि जी ने अपनी मस्तिष्क की उपज से पूर्वपक्ष उठा कर अनेकों प्रामाणिक ग्रन्थों के प्रमाण देकर शंकास्पद स्थलों को उत्तरपक्ष के द्वारा सुस्पष्ट कर दिया है। इसी से लेखक की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। विपाकसूत्र अङ्ग सूत्रों में ग्यारहवां सूत्र है। इस सूत्र में किस विषय का वर्णन आता है, इस का उत्तर यदि अत्यन्त संक्षेप से दिया जाए तो "विपाक"१ इस शब्द से ही दिया जा सकता 1 चूर्णीकार ने विपाकसूत्र का निर्वचन इस प्रकार किया है: विविधः पाकः, अथवा विपचनं विपाकः कर्मणां शुभोऽशुभो वा। विपचनं विपाकः शुभाशुभकर्मपरिणाम इत्यर्थः। जम्मि सुत्ते विपाको कहिज्जइ तं विपाकसुत्तं। तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतं। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है नाना प्रकार से पकना, विशेष कर के कर्मों का शुभ-अशुभ रूप में पकना, अर्थात् शुभाशुभ कर्मपरिणाम को ही विपाक कहते हैं, जिस सूत्र में विपाक कहा जाए उसे विपाकसूत्र अथवा विपाकश्रुत कहते हैं। कर्ममीमांसा] श्री विपाक सूत्रम् [17
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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