SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 677
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुछ फरमाया, उसे सूत्रकार ने निक्खेवो-निक्षेपः-इस पद में गर्भित कर दिया है। निक्खेवोपद का अर्थसम्बन्धी विचार द्वितीय अध्याय के अंत में किया जा चुका है। प्रस्तुत में इससे जो सूत्रांश अपेक्षित है, वह निम्नोक्त है एवं खलु जम्बू! समणेणं भगवया महावीरेणंजाव सम्पत्तेणंदुहविवागाणं अट्ठमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, त्ति बेमि। अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार दुःखविपाक के अष्टम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। जम्बू ! जैसा मैंने भगवान् की परम पवित्र सेवा में रह कर उन से सुना है, . वैसा तुम्हें सुना दिया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। प्रस्तुत अष्टम अध्ययन में शौरिकदत्त नाम के मत्स्यबन्ध-मच्छीमार के अतीत, अनागत और वर्तमान से सम्बन्ध रखने वाले जीवनवृत्तान्त का उपाख्यान के रूप में वर्णन किया गया है, जिस से हिंसा और उसके कटुफल का साधारण से साधारण ज्ञान रखने वाले व्यक्ति . . को भी भली प्रकार से बोध हो जाता है। पदार्थ वर्णन की यह शैली सर्वोत्तम है, जिसे कि सूत्रकार ने अपनाया है। __ हिंसा बुरी है, दुःखों की जननी है, उससे अनेक प्रकार के पाप कर्मों का बन्ध होता है। इस प्रकार के वचनों से श्रोता के हृदय पर हिंसा के दुष्परिणाम (बुराई) की छाप उतनी अच्छी नहीं पड़ती, जितनी कि एक कथारूप में उपस्थित किए जाने वाले वर्णन से पड़ती है। इसी उद्देश्य से शास्त्रकारों ने कथाशैली का अनुसरण किया है। शौरिकदत्त के जीवनवृत्तान्त से हिंसा से पराङ्मुख होने का साधक को जितना अधिक ध्यान आता है, उतना हिंसा के मौखिक निषेध से नहीं आता। .. प्रस्तुत अध्ययनगत शौरिकदत्त के उपाख्यान से हिंसामय सावध प्रवृत्ति और उस से बान्धे गए पाप कर्मों के विपाक-फल को दृष्टि में रखते हुए विचारशील पाठकों को चाहिए कि वे अपनी दैनिकचर्या और खान-पान की प्रवृत्ति को अधिक से अधिक निरवद्य अथच शुद्ध बनाने का यत्न करें, तथा मानव भव की दुर्लभता का ध्यान रखते हुए अपने जीवन को अहिंसक अथच प्रेममय बनाने का भरसक प्रयत्न करें। ताकि उनका जीवन जीवमात्र के लिए, अभयप्रद होने के साथ-साथ स्वयं भी किसी से भय रखने वाला न बने, इसी में मानव का भावी कल्याण अथच सर्वतोभावी श्रेय निहित है। ॥अष्टम अध्याय समाप्त। 668 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy