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________________ प्रस्तावित काम-काज को सुनिश्चित रूप प्राप्त होता। परन्तु आज वे उस से सर्वथा परांमुख हो रहे हैं। उसका नाम तक भी लेने को तैयार नहीं। आज वह प्रेमालाप मधुर-संभाषण एवं सांसारिक और धार्मिक विषयों की विनोदमयी चर्चा उसके लिए स्वप्न सी हो गई। ऐसे क्यों? क्या सचमुच मुझसे ऐसी ही कोई भारी अवज्ञा हुई है, जिस के फलस्वरूप मेरे स्वामी विजय नरेश ने एक प्रकार से मुझे त्याग ही दिया है। वह तो मुझे दिखाई नहीं देती। फिर इसका कारण क्या है ? इस विचार परम्परा में उलझी हुई मृगादेवी को ध्यान आया कि जब से मेरे गर्भ में यह कोई जीव आया है तब से ही महाराज मुझ से रुष्ट हुए हैं। अतः उन के रोष अथच परांमुखता का यही एक कारण हो सकता है। तब यदि इस गर्भ का ही समूलघात कर दिया जाए तो सम्भव है [नहीं-नहीं सुनिश्चित. है] कि महाराज का फिर मेरे ऊपर पूर्ववत् ही स्नेहानुराग हो जाएगा और उनके चरणों की उपासना का मुझे सुअवसर प्राप्त होगा, यह था मध्यरात्री के समय कौटुम्बिक चिन्ता में निमग्न हुई मृगादेवी का चिन्ता मूलक अध्यवसाय या संकल्प, जिस से प्रेरित हुई उस.ने गर्भपात के हेतुभूत उपायों को व्यवहार में लाने का निश्चय किया और तदनुसार गर्भ को गिराने वाली औषधियों का यथाविधि प्रयोग भी किया, परन्तु इस में वह सफल नहीं हो पाई। .. उस के इस प्रकार विफल होने में विपाकोन्मुख अशुभकर्म के सिवा और कोई भी मौलिक कारण दिखाई नहीं देता। अवश्यंभावी भाव का प्रतिकार कठिन ही नहीं किन्तु अशक्य अथच अपरिहार्य होता है। यही कारण है कि सर्वथा अनिच्छा होने पर भी उसेमृगादेवी को गर्भधारण करने में विवश होना पड़ा। "किमंग पुण" यह अव्यय - समुदाय अर्द्धमागधी-कोष के मतानुसार "-क्या कहना? उस में तो कहना ही क्या ? अथवा सामान्य बात तो यह है और विशेष बात तो क्या करना-'' इन अर्थों में प्रयुक्त होता है। -शातना गर्भ की खण्ड-खण्ड करके गिरा देने वाली क्रिया विशेष का नाम [शातना गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतनहेतवः] अथवा शातना गर्भ को खण्ड-खण्ड करके गिरा देने वाली औषधादि का नाम है। पातना-जिन क्रियाओं या उपायों से खण्डरूप में ही गर्भ का पात किया जा सके, वे पातन के नाम से प्रसिद्ध हैं। [पातना यैरुपायैरखण्ड एव गर्भः पतति] गालना-जिन प्रयोगों से गर्भ द्रवीभूत होकर नष्ट हो जाए उन्हें गालना कहते हैं-(यैर्गों द्रवीभूय क्षरति) तथा गर्भ की मृत्यु के कारणभूत उपाय विशेष की मारण संज्ञा है। अब सूत्रकार मृगापुत्र की गर्भगत अवस्था का वर्णन करते हैंमूल-तस्स णंदारस्स गब्भगयस्स चेव अट्ठणालीओ अब्भंतरप्पवहाओ प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [191
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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