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________________ करना चाहिए। इस का सारांश यह है कि-उत्पला अपने दोहद की पूर्ति न होने पर बहुत दुःखी हुई। अधिक क्या कहें प्रतिक्षण उदास रहती हुई आर्तध्यान करने लगी। एक दिन उत्पला के पति भीम नामक कूटग्राह उस के पास आए, उदासीन तथा आर्त ध्यान में व्यस्त हुई उत्पला को देख कर प्रेमपूर्वक बोले-देवि ! तुम इतनी उदास क्यों हो रही हो? तुम्हारा शरीर इतना कृश क्यों हो गया ? तुम्हारे शरीर पर तो मांस दिखाई ही नहीं देता, यह क्या हुआ ? तुम्हारी इस चिन्ताजनक अवस्था का कारण क्या है ? इत्यादि। पतिदेव के सान्त्वना भरे शब्दों को सुन कर उत्पला बोली, महाराज ! मेरे गर्भ को लगभग तीन मास पूरे हो जाने पर मुझे एक दोहद उत्पन्न हुआ है, उस की पूर्ति न होने से मेरी यह दशा हुई है। उसने अपने दोहद की ऊपर वर्णित सारी कथा कह सुनाई। उत्पला की बात को सुनकर भीम कूटग्राह ने उसे आश्वासन देते हुए कहा कि भद्रे ! तू चिन्ता न कर, मैं ऐसा यत्न अवश्य करूंगा, कि जिस से तुम्हारे दोहद की पूर्ति भली-भांति हो सकेगी। इसलिए तू अब सारी उदासीनता को त्याग दे। "ओहय० जाव पासति"-"ओहय० जाव झियासि" "गो• सुरं च 5 आसाए०४" और "अविणिजमाणंसि जाव झियाहि" इत्यादि स्थलों में पठित "जाव-यावत्" पद से तथा बिन्दु और अंकों के संकेत से प्रकृत अध्ययन में ही उल्लिखित सम्पूर्ण पाठ का स्मरण कराना सूत्रकार को अभीष्ट है। __ "इट्ठाहिं जाव समासासेति" वाक्य के "जाव-यावत्" पद से "कंताहिं, पियाहिं, मणुन्नाहिंमणामाहि-इन पदों का ग्रहण करना। ये सब पद समानार्थक हैं। सारांश यह है किनितांत उदास हुई उत्पला को शान्त्वना देते हुए भीम ने बड़े कोमल शब्दों में यह पूर्ण आशा दिलाई कि मैं तुम्हारे इस दोहद को पूर्ण करने का भरसक प्रयत्न करूंगा। अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उत्पला. के दोहद की पूर्ति का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से भीमे कूङ अड्ढरत्तकालसमयंसि एगे अबीए सण्णद्ध जाव 1 पहरणे सयाओ गिहाओ निग्गच्छति 2 त्ता हत्थिणाउरं मझमझेणं जेणेव गोमंडवे तेणेव उवागए 2 बहूणं णगरगोरूवाणं जाव वसभाण य अप्पेगइयाणं ऊहे छिंदति जाव अप्पेगइयाणं कंबलए छिंदति, अप्पेगइयाणं अण्णमण्णाइं अंगोवंगाइं वियंगेति 2 त्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति 2 1. "-जाव-यावत्-" पद से-सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवए, उप्पीलियसरासणपट्टिए पिणद्ध-गेविजे, विमलवरबद्धचिंधपट्टे, गहियाउहपहरणे, इन पदों का ग्रहण समझना। इन की व्याख्या इसी अध्ययन में पीछे की जा चुकी है। 276 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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