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________________ क्रम बताने के लिए शास्त्रों में चार भेद कहे गए हैं। साधारणतया प्रत्येक मनुष्य समझता है कि मन और इन्द्रिय से एकदम जल्दी ही ज्ञान हो जाता है। वह समझता है मैंने आंख खोली और ' पहाड़ देख लिया। अर्थात् उसकी समझ के अनुसार इन्द्रिय या मन की क्रिया होते ही ज्ञान हो जाता है, ज्ञान होने में तनिक भी देर नहीं लगती। किन्तु जिन्होंने आध्यात्मिक विज्ञान का अध्ययन किया है उन्हें मालूम है कि ऐसा नहीं होता। छोटी से छोटी वस्तु देखने में भी बहुत समय लग जाता है। मगर वह समय अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण हमारी स्थूल कल्पना शक्ति में नहीं आता। इन्द्रिय या मन से ज्ञान होने में कितना काल लगता है, यह बात नीचे दिखाई जाती है। जब हम किसी वस्तु को जानना या देखना चाहते हैं तब सर्व-प्रथम दर्शनोपयोग होता है। निराकार ज्ञान को जिस में वस्तु का अस्तित्व मात्र प्रतीत होता है, जैनदर्शन में दर्शनोपयोग कहते हैं। दर्शन हो जाने के अनन्तर अवग्रह ज्ञान होता है। अवग्रह दो प्रकार का है (1) .. व्यंजनावग्रह और (2) अर्थावग्रह / मान लीजिए कोई वस्तु पड़ी है, परन्तु उसे दीपक के बिना नहीं देख सकते। जब दीपक का प्रकाश उस पर पड़ता है, तब वह वस्तु को प्रकाशित कर देता है, इसी प्रकार इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान में जिस वस्तु का जिस इन्द्रिय से ज्ञान होता है उस वस्तु के परमाणु इन्द्रियों से लगते हैं। उस वस्तु का और इन्द्रिय का सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। व्यंजन का वह अवग्रह-ग्रहण व्यंजनावग्रह कहलाता है। यह व्यंजनावग्रह आंख से और मन से नहीं होता क्योंकि आंख और मन का वस्तु के परमाणुओं के साथ सम्बन्ध नहीं होता, ये दोनों इन्द्रियां पदार्थ का स्पर्श किए बिना ही पदार्थ को जान लेती हैं, अर्थात् अप्राप्यकारी हैं। शेष चार इन्द्रियों से ही व्यंजनावग्रह होता है अर्थात्-आंख और मन को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियों से पहले व्यंजनावग्रह ही होता है। व्यंजनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह होता है। व्यंजनावग्रह द्वारा अव्यक्त-रूप से जानी हुई वस्तु को "यह कुछ है" इस रूप से जानना अर्थावग्रह कहलाता है अर्थात् अर्थावग्रह व्यञ्जनावग्रह की एक चरम पुष्ट अंश ही है। अवग्रह के इन दोनों भेदों में से अर्थावग्रह तो पांचों इन्द्रियों से और मन से भी होता है, अतएव उसके छह भेद हैं / व्यंजनावग्रह आंख को छोड़कर चार इन्द्रियों से होता है। वह मन एवं आंख से नहीं होता। तात्पर्य यह है कि-इन्द्रियों और मन से ज्ञान होने में पहले अवग्रह होता है। अवग्रह एक प्रकार का सामान्य ज्ञान है। जिसे यह ज्ञान होता है उसे स्वयं भी मालूम नहीं होता कि मुझे क्या ज्ञान हुआ। लेकिन विशिष्ट ज्ञानियों ने इसे भी देखा है, जिस प्रकार कपड़ा फाड़ते समय एक- एक तार का टूटना मालूम नहीं होता है लेकिन तार टूटते अवश्य हैं / तार न टूटे तो कपड़ा फट नहीं सकता। इस प्रकार अवग्रह ज्ञान 112 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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