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________________ कहते हैं कि श्रद्धा अर्थात् 'पूछने की इच्छा' संशय से उत्पन्न होती है और संशय कौतुहल से उत्पन्न हुआ। यह सामने ऊंची सी दिखाई देने वाली वस्तु मनुष्य है या ठूण्ठ है इस प्रकार का अनिश्चयात्मक ज्ञान संशय कहलाता है, इस प्रकार व्याख्या करके आचार्य एक-दूसरे पद के साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं / अर्थात् श्रद्धा के साथ संशय का, और संशय से कौतूहल का सम्बन्ध जोड़ते हैं। कौतूहल का अर्थ उन्होंने यह किया है हम यह बात कैसे जानेंगे? इस प्रकार की उत्सुकता को कौतूहल कहते हैं। इस प्रकार व्याख्या करके वे आचार्य कहते हैं कि इन बारह पदों के चार-चार हिस्से करने चाहिएं। इन चार हिस्सों में एक हिस्सा अवग्रह का है, एक ईहा का है, एक अवाय का है और एक धारणा का है। इस प्रकार इन चार विभागों में बारह पदों का समावेश हो जाता है। दूसरे आचार्य का कथन है कि इन बारह पदों का समन्वय दूसरी ही तरह से करना चाहिए। उनके मन्तव्य के अनुसार बारह पदों के भेद करके उन्हें अलग-अलग करने की आवश्यकता नहीं है। जात, संजात, उत्पन्न, समुत्पन्न इन सब पदों का एक ही अर्थ है। प्रश्न होता है कि एक ही अर्थ वाले इतने पदों का प्रयोग क्यों किया गया ? इसका वे उत्तर देते हैं कि-भाव को बहुत स्पष्ट करने के लिए इन पदों का प्रयोग किया गया है। एक ही बात को बार-बार कहने से पुनरुक्ति दोष आता है। अगर एक ही भाव के लिए अनेक पदों का प्रयोग किया गया तो यहां पर भी यह दोष क्यों न होगा? इस प्रश्न का उत्तर उन आचार्यों ने यह दिया है कि-स्तुति करने से पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता। शास्त्रकार ने विभिन्न पदों द्वारा एक ही बात कह कर श्री गौतम स्वामी की प्रशंसा की है, अतएव बारबार के इस कथन को पुनरुक्ति दोष नहीं कहा जा सकता, इसका प्रमाण यह है वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निंदन्। यत् पदमसकृद् ब्रूते तत्पुनरुक्तं न दोषाय॥ अर्थात् हर्ष या भय आदि किसी प्रबल भाव से विक्षिप्त मन वाला वक्ता, किसी की प्रशंसा या निन्दा करता हुआ अगर एक ही पद को बार-बार बोलता है तो उसमें पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता। जिन आचार्य के मतानुसार इन बारह पदों को अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में विभक्त किया गया है। उनके कथन के आधार पर यह प्रश्न हो सकता है कि अवग्रह आदि का क्या अर्थ है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाले मतिज्ञान के ये चार भेद हैं। अर्थात् हम जब किसी वस्तु को किसी इन्द्रिय या मन द्वारा जानते हैं, तो वह ज्ञान किस क्रम से उत्पन्न होता है यही प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [111
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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