SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "जायसड्ढे"और"उप्पन्नसडढे"की ही तरह "जायसंसए" और "उप्पन्नसंसए" तथा "जायकोउहल्ले" और "उप्पन्नकोउहल्ले" पदों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। इन 6 पदों के पश्चात् कहा है-"संजायसड्ढे, संजायसंसए संजायकोउहल्ले" और "समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले"। इस प्रकार 6 पद और कहे गए अर्वाचीन और प्राचीन शास्त्रों में शैली सम्बन्धी बहुत अन्तर है, प्राचीन ऋषि पुनरूक्ति का इतना ख्याल नहीं करते थे, जितना संसार के कल्याण का करते थे। उन्होंने जिस रीति से संसार की भलाई अधिक देखी, उसी रीति को अपनाया और उसी के अनुसार कथन किया, यह बात जैनशास्त्रों के लिए ही लागू नहीं होती वरन् सभी प्राचीन शास्त्रों के लिए लागू है। गीता में अर्जुन को बोध देने के लिए एक ही बात विभिन्न शब्दों द्वारा दोहराई गई है। एक सीधे-सादे उदाहरण पर विचार करने से यह बात समझ में आ जाएगी-किसी का लड़का सम्पत्ति लेकर प्रदेश जाता हो तो उसे घर में भी सावधान रहने की चेतावनी दी जाती है। घर से बाहर भी चेताया जाता है कि सावधान रहना और अन्तिम बार विदा देते समय भी चेतावनी दी जाती है। एक ही बात बार-बार कहना पुनरूक्ति ही है लेकिन पिता होने के नाते मनुष्य अपने पुत्र को बार-बार समझाता है। यही पिता पुत्र का सम्बन्ध सामने रख कर महापुरुषों ने शिक्षा की लाभप्रद बातों को बार-बार दोहराया है। ऐसा करने में कोई हानि नहीं, वरन् लाभ ही होता है। अन्तिम 6 पदों में पहले के तीन पद इस प्रकार हैं-"संजायसड्ढे, संजायसंसए, संजाय-कोउहल्ले"। इन तीनों पदों का अर्थ वैसा ही है जैसा कि "जायसड्ढे, जायसंसए और जायकोउहल्ले" पदों का बताया जा चुका है। अन्तर केवल यही है कि इन पदों में 'जाय' के साथ 'सम्' उपसर्ग लगा हुआ है। 'जाय' का अर्थ है प्रवृत्त और 'सम्' उपसर्ग अत्यन्तता का बोधक है। जैसे-मैंने कहा, इस स्थान पर व्यवहार में कहते हैं-'मैंने खूब कहा' 'मैं बहुत चला' इत्यादि। इस प्रकार जैसे अत्यन्तता का भाव प्रकट करने के लिए बहुत या खूब शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार शास्त्रीय भाषा में अत्यन्तता बताने के लिए 'सम्' शब्द लगाया जाता है, अतएव तीनों पदों का यह अर्थ हुआ कि-बहुत श्रद्धा हुई' बहुत संशय हुआ और बहुत कौतूहल हुआ और इसी प्रकार "समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए" और "समुप्पन्नकोउहल्ले" पदों का भाव भी समझ लेना चाहिए। इन पदों के इस अर्थ में आचार्यों में किंचिद् मतभेद है। कोई आचार्य इन बारह पदों का अर्थ अन्य प्रकार से भी करते हैं। वे 'श्रद्धा' पद का अर्थ'पूछने की इच्छा' करते हैं। और 110] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy