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________________ इस कथन में यह तर्क किया जा सकता है कि श्रद्धा में जब प्रवृत्ति होती है तब स्वयं प्रतीत हो जाती है कि श्रद्धा उत्पन्न हुई है। अर्थात्-श्रद्धा प्रवृत्त हुई है तो उत्पन्न हो ही गई है फिर प्रवृत्ति और उत्पत्ति को अलग-अलग कहने की क्या आवश्यकता थी? उदाहरण के लिए-एक बालक चल रहा है। चलते हुए उस बालक को देखकर यह तो आप ही समझ में आ जाता है कि बालक उत्पन्न हो चुका है। उत्पन्न न हुआ हो तो चलता ही कैसे? इसी प्रकार जम्बूस्वामी की प्रवृत्ति श्रद्धा में हुई है, इसी से यह बात समझ में आ जाती है कि उनमें श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। फिर श्रद्धा की प्रवृत्ति बताने के पश्चात् उस की उत्पत्ति बताने की क्या आवश्यकता है? इस तर्क का उत्तर यह है कि-प्रवृत्ति और उत्पत्ति में कार्य-कारणभाव प्रदर्शित करने के लिए दोनों पद पृथक्-पृथक् कहे गए हैं। कोई प्रश्न करे कि श्रद्धा में प्रवृत्ति क्यों हुई? तो इसका उत्तर होगा कि, श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। कार्य-कारण भाव बताने से कथन में संगतता आती है, सुन्दरता आती है और शिष्य की बुद्धि में विशुद्धता आती है। कार्यकारणभाव प्रदर्शित करने से वाक्य अलंकारिक बन जाता है। सादी और अलंकारयुक्त भाषा में अन्तर पड़ जाता है। अलंकारमय भाषा उत्तम मानी जाती है। अतएव कार्य कारण भाव दिखाना भाषा का दूषण नहीं है, भूषण है। इस समाधान को साक्षी पूर्वक स्पष्ट करने के लिए साहित्य-शास्त्र का प्रमाण देखिए-"प्रवृत्त-दीपामप्रवृत्तभास्करां प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरीम्' अर्थात् जिस में दीपकों की प्रवृत्ति हुई, सूर्य की प्रवृत्ति नहीं है ऐसी चन्द्रमा के प्रकाश वाली रात्रि समझी। इस कथन में भी कार्यकारणभाव की घटना हुई है। "प्रवृत्त-दीपाम्" कहने से "अप्रवृत्त-भास्करां" का बोध हो ही जाता है, क्योंकि सूर्य की प्रवृत्ति होने पर दीपक नहीं जलाए जाते। अतः जब दीपक जलाए गए हैं तो सूर्य प्रवृत्त नहीं है, यह जानना स्वाभाविक है, फिर भी यहां सूर्य की प्रवृत्ति का अभाव अलग कहा गया है। यह कार्यकारण भाव बताने के लिए ही है। कार्यकारण भाव यह है कि सूर्य नहीं है अतः दीपक जलाए गए हैं। जैसे यहां कार्य कारणभाव प्रदर्शित करने के लिए अलग दो पदों का ग्रहण किया गया है, उसी प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में भी कार्यकारण भाव दिखाने के लिए ही "जायसड्ढे" और "उप्पन्नसड्ढे" इन दो पदों का अलग-अलग प्रयोग किया गया है। श्रद्धा में प्रवृत्ति होने से यह स्वतः सिद्ध है कि श्रद्धा उत्पन्न हुई, लेकिन वाक्यालंकार के लिए जैसे उक्त वाक्य में सूर्य नहीं है यह दुबारा कहा गया है, उसी प्रकार यहां "श्रद्धा उत्पन्न हुई" यह कथन किया गया प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [109
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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