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________________ दूसरी जगह कहा है-"न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति।" संशय उत्पन्न हुए बिना -संशय किए बिना मनुष्य को कल्याण-मार्ग दिखाई नहीं पड़ता। तात्पर्य यह है कि एक संशय आत्मा का घातक होता है और दूसरा संशय आत्मा का रक्षक होता है। जम्बूस्वामी का यह संशय अपूर्व ज्ञान-ग्रहण का कारण होने से आत्मा का घातक नहीं है प्रत्युत साधक है। "जायकोउहल्ले-जातकुतूहल"। जम्बू स्वामी को कौतूहल हुआ, उनके हृदय में उत्सुकता उत्पन्न हुई। उत्सुकता यह कि मैं आर्य श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करूंगा तब वे मुझे अपूर्व वस्तुतत्त्व समझाएंगे, उस समय उन के मुखारविन्द से निकले हुए अमृतमय वचन श्रवण करने में कितना आनंद होगा! ऐसा विचार करके जम्बूस्वामी को कौतूहल हुआ। ___ यहां तक "जायसड्ढे, जायसंसए" और "जायकोउहल्ले" इन तीनों पदों की व्याख्या की गई है इससे आगे कहा गया है-"उप्पन्नसड्ढे, उप्पन्नसंसए, उप्पन्नकोउहल्ले" अर्थात् श्रद्धा उत्पन्न हुई संशय उत्पन्न हुआ और कौतूहल उत्पन्न हुआ। ___ यहां यह प्रश्न हो सकता है कि "जायसड्ढे" और "उप्पन्नसड्ढे" में क्या अन्तर है। ये दो विशेषण अलग-अलग क्यों कहे गए हैं ? इस का उत्तर यह है कि श्रद्धा जब उत्पन्न हुई तब वह प्रवृत्त भी हुई, जो श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई उसकी प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती। श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र के अनन्तर श्री विपाक सूत्र का स्थान है / प्रश्नव्याकरण में 5 आस्रवों तथा 5 संवरों का सविस्तार वर्णन है। विपाक सूत्र में 20 कथानक हैं, जिन में कुछ आश्रवसेवी व्यक्तियों के विषादान्त जीवन का वर्णन है और वहां ऐसे कथानक भी संकलित हैं, जिन में साधुता के उपासक सच्चरित्री मानवों के प्रसादान्त जीवनों का परिचय कराया गया है। जब श्री जम्बू स्वामी ने प्रश्नव्याकरण का अध्ययन कर लिया, उस पर मनन एवं उसे धारण कर लिया, तब उनके हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने आस्रव और संवर का स्वरूप तो अवगत कर लिया है परन्तु मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि कौन आस्रव क्या फल देता है ? आस्रव-जन्य कर्मों का फल स्वयमेव उदय में आता है या किसी दूसरे के द्वारा ? कर्मों का फल इसी भव में मिलता है, या परभव में ? कर्म जिस रूप में किये हैं उसी रूप में उन का भोग करना होगा, या किसी अन्य रूप में ? अर्थात् यदि यहां किसी ने किसी की हत्या की है तो क्या परभव में उसी जीव के द्वारा उसे अपनी हत्या करा कर कर्मों का उपभोग करना होगा, या उस कर्म का फल अन्य किसी दु:ख के रूप में प्राप्त होगा? इत्यादि विचारों का प्रवाह उन के मानस में प्रवाहित होने लगा। जिसे "जातसंशय" पद से सूत्रकार ने अभिव्यक्त किया है, "रहस्यं तु केवलिगम्यम्।" श्रद्धेय श्री घासी लाल जी म० अपनी विपाकसूत्रीय टीका में भी विपाकमूलक संशय का अभिप्राय लिखते हैं। उन्होंने लिखा है जात-संशयः-जातः प्रवृतः संशयो यस्य स तथा। दशमांगे प्रश्नव्याकरणसूत्रे भगवत्-प्रोक्तमास्रवसंवरयोः स्वरूपं धर्माचार्यसमीपे श्रुतं तद्विपाक-विषये संशयोत्पत्या जातसंशय इति भावः / अर्थात् श्री जम्बू स्वामी ने पहले भगवान् द्वारा प्रतिपादित दशमांग प्रश्नव्याकरण नामक सूत्र में आस्रव और संवर के भाव श्री सुधर्मा स्वामी के पास सुने थे, अत: उनके विपाक के विषय में उन्हें संशय की उत्पत्ति हुई। 108 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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