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________________ घोड़े पर सवार हो कर अनेकों अनुचरों के साथ अश्वक्रीड़ा के लिए राजमहल से निकल सेठ दत्त के घर के पास से होकर जा रहे थे, तब यावत् जाते हुए वैश्रमण महाराज ने देवदत्ता कन्या को ऊपर सोने की गेंद के साथ खेलते हुए देखा, देखकर कन्या के रूप, यौवन और लावण्य से विस्मित होकर राजपुरुषों को बुलाकर कहने लगे कि हे भद्रपुरुषो! यह कन्या किस की है ? तथा इस का नाम क्या है ? तब राजपुरुष हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार कहने लगे-स्वामिन् ! यह कन्या सेठ दत्त की पुत्री और कृष्णश्री सेठानी की आत्मजा है। इस का नाम देवदत्ता है और यह रूप, यौवन और लावण्य-कान्ति से उत्तम शरीर वाली है। टीका-परम पूज्य तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी बोले कि गौतम ! तत्पश्चात् 22 सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले छठे नरक में अनेकानेक दुःसह कष्टों को भोग कर वहां की भवस्थिति पूरी हो जाने पर सुप्रतिष्ठ नगर का अधिपति सिंहसेन उस नरक से निकल कर सीधा ही इसी रोहीतक नगर में, नगर के लब्धप्रतिष्ठ सेठ दत्त के यहां सेठानी कृष्ण श्री के उदर में लड़की के रूप में उत्पन्न हुआ। सेठानी कृष्णश्री गर्भस्थ जीव का यथाविधि पालन पोषण करने लगी अर्थात् गर्भकाल में हानि पहुंचाने वाले पदार्थों का त्याग और गर्भ को पुष्ट . करने वाली वस्तुओं का उपभोग करती हुई समय व्यतीत करने लगी। गर्भकाल पूर्ण होने पर कृष्णश्री ने एक सुकोमल हाथ पैरों वाली सर्वांगपूर्ण और परम रूपवती कन्या को जन्म दिया। बालिका के जन्म से सेठदम्पती को बड़ा हर्ष हुआ, तथा इस उपलक्ष्य में उन्होंने बड़े समारोह के साथ उत्सव मनाया और प्रीतिभोजन कराया, तथा बारहवें दिन नवजात बालिका का "देवदत्ता" ऐसा नामकरण किया। तब से वह बालिका देवदत्ता नाम से पुकारी जाने लगी, इस तरह बड़े आडम्बर के साथ विधिपूर्वक उसका नामकरण संस्कार सम्पन्न हुआ। देवदत्ता के पालन पोषण के लिए माता पिता ने "१-गोदी में उठाने वाली, २-दूध पिलाने वाली, ३-स्नान कराने वाली, ४-क्रीड़ा कराने वाली, और ५-श्रृंगार कराने वाली" इन पांच धाय माताओं का प्रबन्ध कर दिया था और वे पांचों ही अपने-अपने कार्य में बड़ी निपुण थीं, उन्हीं की देख-रेख में बालिका देवदत्ता का पालन पोषण होने लगा और वह बढ़ने लगी। उस ने शैशव अवस्था से निकल कर युवावस्था में पदार्पण किया। यौवन की प्राप्ति से 1. महाराज सिंहसेन का लड़की के रूप में उत्पन्न होना अर्थात् पुरुष से स्त्री बनना, उसके छल कपट का ही परिचायक है तथा छल, कपट-माया से इस जीव को स्त्रीत्व-स्त्री भव की प्राप्ति होती है। इस प्रकृतिसिद्ध सिद्धान्त को प्रस्तुत प्रकरण में व्यावहारिक स्वरूप प्राप्त हुआ है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [711
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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