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________________ परम सुन्दरी देवदत्ता रूप से, लावण्य से, सौन्दर्य एवं मनोहरता से अपनी उपमा आप बन गई। उस की परम सुन्दर आकृति की तुलना किसी दूसरी युवती से नहीं हो सकती थी, मानो प्रकृति की सुन्दरता और लावण्यता ने देवदत्ता को ही अपना पात्र बनाया हो। किसी समय स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त हो सुन्दर वेष पहन कर बहुत सी दासियों के साथ अपने गगनचुम्बी मकान के ऊपर झरोखे में सोने की गेंद से खेलती हुई देवदत्ता बालसुलभ क्रीड़ा से अपना मन बहला रही थी। इतने में उस नगर के अधिपति महाराज वैश्रमणदत्त बहुत से अनुचरों के साथ घोड़े पर सवार हुए अश्वक्रीड़ा के निमित्त दत्त सेठ के मकान के पास से निकले तो अकस्मात् उन की दृष्टि महल के उपरिभाग की तरफ़ गई और वहां उन्होंने स्वर्णकन्दुक से दासियों के साथ क्रीड़ा में लगी हुई देवदत्ता को देखा, देख कर उस के अपूर्व यौवन और रूपलावण्य ने महाराज वैश्रमणदत्त को बलात् अपनी ओर आकर्षित किया और वहां पर ठहरने पर विवश कर दिया। देवदत्ता के अलौकिक सौन्दर्य से महाराज वैश्रमण को बड़ा विस्मय हुआ। उन्हें आज तक किसी मानवी स्त्री में इतना सौन्दर्य देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। कुछ समय तो वे इस भ्रांति में रहे कि यह कोई स्वर्ग से उतरी हुई देवांगना है या मानवी महिला। अन्त में उन्होंने अपने अनुचरों से पूछा कि यह किस की कन्या है और इसका क्या नाम है। इस के उत्तर में अनुचरों ने कहा कि महाराज ! यह अपने नगरसेठ दत्त की पुत्री और सेठानी कृष्णश्री की आत्मजा है और देवदत्ता इस का नाम है। यह रूपलावण्य की राशि और नारीजगत् में सर्वोत्कृष्ट है। ___-उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा-इस का अर्थ है-उत्कृष्ट-उत्तम सुन्दर शरीर वाली। उत्कृष्टं सुन्दरं शरीरं यस्याः सा तथा। तथा रूप और लावण्य में इतना अन्तर है कि रूप शुक्ल कृष्ण आदि वर्ण-रंग का नाम है और शरीरगत सौन्दर्यविशेष की लावण्य संज्ञा है। अर्धमागधी कोष में आकाशतलक और आकाशतल ये दो शब्द उपलब्ध होते हैं। आकाशतलक का अर्थ वहां झरोखा तथा अकाशतल के १-आकाश का तल, २गगनस्पर्शी-बहुत ऊंचा महल, ऐसे दो अर्थ लिखे हैं। प्रस्तुत में सूत्रकार ने आकाशतलक शब्द का आश्रयण किया है, परन्तु यदि आकाशतल शब्द से स्वार्थ में क प्रत्यय कर लिया जाए तो प्रस्तुत में आकाशतलक शब्द के -आकाश का तल, अथवा गगनस्पर्शी बहुत ऊंचा महल ये दोनों अर्थ भी निष्पन्न हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि-उप्पिं आगासतलगंसि- इस पाठ के १-ऊपर झरोखे में, २-ऊपर आकाशतल पर अर्थात् मकान की छत पर तथा ३गगनस्पर्शी बहुत ऊंचे महल के ऊपर, ऐसे तीन अर्थ किए जा सकते हैं। 712 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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