________________ णं-और इतने में। वेसमणदत्ते-वैश्रमणदत्त / राया-राजा। हाते-नहा कर। जाव-यावत्। विभूसितेसमस्त आभूषणों से विभूषित हो कर। आसं-अश्व पर। दुरूहति दुरूहित्ता-आरोहण करता है, करके। बहूहिं-बहुत से। पुरिसेहि-पुरुषों के। सद्धिं-साथ। संपरिवुडे-संपरिवृत-घिरा हुआ। आसवाहणियाएअश्ववाहनिका-अश्वक्रीडा के लिए। णिजायमाणे-जाता हुआ। दत्तस्स-दत्त / गाहावइस्स-गाथापतिसार्थवाह के। गिहस्स-घर के। अदूरसामंतेणं-नज़दीक में से। वीतीवयति-जाता है-गुजरता है। तते णंतदनन्तर। से-वह। वेसमणे-वैश्रमण। राया-राजा। जाव-यावत्। वीतीवयमाणे-जाते हुए। देवदत्तंदेवदत्ता। दारियं-बालिका को, जोकि। उप्पिं-ऊपर। आगासतलगंसि-झरोखे में। जाव-यावत् अर्थात् स्वर्ण की गेंद से खेल रही है। पासति पासित्ता-देखता है, देख कर। देवदत्ताए-देवदत्ता। दारियाएंबालिका के।रूवेण य-रूप से। जोव्वणेण य-यौवन से, तथा। लावण्णेण य-लावण्य से। जायविम्हएविस्मय को प्राप्त हो। कोडुंबियपुरिसे-कौटुंबिकपुरुषों को। सद्दावेति-बुलाता है। सद्दावित्ता-बुलाकर, उनके प्रति। एवं वयासी-इस प्रकार कहता है। देवाणुप्पिया !-हे भद्रपुरुषो ! एसा-यह / दारियाबालिका। कस्स णं-किस की है। किं च नामधिजेणं-और (इस का) क्या नाम है ? / तते णंतदनन्तर। ते-वे। कोडुंबिया-कौटुम्बिक पुरुष। वेसमणराय-महाराज वैश्रमणदत्त के प्रति। करतल०दोनों हाथ जोड़। जाव-यावत् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि रख कर। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। सामी !-हे स्वामिन् ! एस णं-यह। दत्तस्स-दत्त। सत्थवाहस्स-सार्थवाह की। धूया-पुत्री, और कण्हसिरीअत्तया-कृष्णश्री की आत्मजा है, तथा। देवदत्ता-देवदत्ता। णाम-नाम की। दारियाबालिका है, जो कि। रूवेण य-रूप से। जोव्वणेण य-यौवन से, और / लावण्णेण य-लावण्य से। उक्किट्ठा-उत्कृष्ट-उत्तम तथा। उक्किट्ठसरीरा-उत्कृष्ट शरीर वाली है। मूलार्थ-तदनन्तर वह सिंहसेन का जीव छठी नरक से निकल कर रोहीतक नगर में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री नामक भार्या के उदर में पुत्रीरूप से उत्पन्न हुआ। तब उस कृष्णश्री ने लगभग नवमास परिपूर्ण होने पर एक कन्या को जन्म दिया जो कि अत्यन्त कोमल हाथ, पैरों वाली यावत् परम सुन्दरी थी। तत्पश्चात् उस कन्या के माता पिता ने बारहवें दिन बहुत सा अशनादिक तैयार कराया, यावत् मित्र, ज्ञाति आदि को निमंत्रित कर एवं सब के भोजनादि से निवृत्त हो लेने पर कन्या का नामकरण संस्कार करते हुए कहा कि हमारी इस कन्या का नाम देवदत्ता रखा जाता है। तदनन्तर वह देवदत्ता पांच धाय माताओं के संरक्षण में वृद्धि को प्राप्त होने लगी। तब वह देवदत्ता बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् यौवन, रूप और लावण्य से अत्यन्त उत्तम एवं उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई। तदनन्तर वह देवदत्ता किसी दिन स्नान करके यावत् समस्त भूषणों से विभूषित हुई बहुत सी कुब्जा आदि दासियों के साथ अपने मकान के ऊपर झरोखे में सोने की गेंद के साथ खेल रही थी और इधर स्नानादि से निवृत्त यावत् विभूषित महाराज वैश्रमण 710] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध