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________________ था। सारांश यह है कि जीव हिंसा करना उसके जीवन का प्रधान लक्ष्य बना हुआ था। उसी पर उसका जीवन निर्भर था। निर्णय के अनेकों नौकर थे, जिन्हें जीवन-निर्वाह के लिए उसकी ओर से भृतिआजीविका दी जाती थी। कई एक को अन्न दिया जाता था, अर्थात् कई एक को भोजन मात्र और कई एक को रुपया पैसा। ये नौकर पुरुष अपने स्वामी के आदेशानुसार काम करते तथा अपनी स्वामिभक्ति का परिचय देते थे। वे प्रतिदिन प्रात:काल उठते, कुद्दाल और बांस की पिटारियों को उठाते और नगर के बाहर चारों तरफ घूमते। जहां कहीं उन्हें काकी, मयूरी, कपोती और कुकड़ी आदि पक्षियों के अंडे मिलते, वहीं से वे ले लेते। इसके अतिरिक्त अन्य जलचर, स्थलचर तथा खेचर आदि जन्तुओं के अंडों की उन्हें जहां से प्राप्ति होती वहीं से लेकर वे अपनी-अपनी पिटारियों को भर लेते थे, तथा लाकर निर्णय के सुपुर्द कर देते। यह उन का प्रतिदिन का काम था। निर्णय ने जहां अंडों को खोज कर लाने के लिए आदमी रखे हुए थे, वहां साथ में उस ने ऐसे पुरुष भी रख छोड़े थे जो कि राजमार्ग में स्थित दुकानों पर बैठ; अंडों का क्रयविक्रय किया करते। अंडों को उबालकर, भून कर और पकाकर बेचते। तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष को निर्णय ने जो काम संभाल रखा था, वह उसे पूरी सावधानी से करता था। इस वर्णन से यह पता चलता है कि निर्णय ने अंडों का व्यवसाय काफी फैला रखा था। पाठक कभी यह समझने की भूल न करें कि निर्णय का यह व्यवसाय केवल व्यापार तक ही सीमित था किन्तु वह स्वयं भी मांसाहारी था। अपने प्रतिदिन के भोजन को भी वह अंडों से तैयार कराया करता और अनेक विधियों से अंडों का आहार करता। मांस के साथ मदिरा का निकट सम्बन्ध होने से वह इस का भी पर्याप्त उपभोग करता। इस प्रकार के सावध व्यापार तथा आहारादि से निः य ने अपने जीवन में पाप-कर्मों का काफी संचय किया, जिस के फलस्वरूप उसे मरकर तीसरी नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होना पड़ा। यह सच है कि जघन्य स्वार्थ मनुष्य को बुरे से बुरे काम की ओर प्रवृत्त करा देता है। स्वार्थ और मनुष्यता का अहि-नकुल (सांप और नेवले) की भान्ति सहज (स्वाभाविक) वैर है। मनुष्यता की स्थिति में स्वार्थ का अभाव होता है और स्वार्थ के आधिपत्य में मनुष्यता नहीं रहने पाती। स्वार्थी जीव दूसरों के हित का नाश करने में संकोच नहीं करता, तथा निर्दोष प्राणियों के प्राणों का अपहरण करना उसके लिए एक साधारण सी बात हो जाती है। निर्णय नामक अंडवाणिज भी इसी स्वार्थ पूर्ण वृत्ति के कारण अगणित प्राणियों की हिंसा कर रहा था। उसकी इस पापमय प्रवृत्ति ने उस के आत्मा को अधिक से अधिक भारी कर दिया। उसने 362 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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