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________________ अथवा शास्त्रीय परिभाषानुसार-जो अन्य किसी बाह्य निमित्त की अनपेक्षा से स्वयं उदय हो कर फल देवे उसे औपक्रमिक वेदना कहते हैं। जो कर्म स्वतः या परतः जीव द्वारा अथवा इष्ट अनिष्ट पुद्गल के द्वारा उदीरणा कर के उदीयमान हो उसे अध्यवगमिक वेदना कहते हैं / वेदना का तात्पर्य यहां फल भोगने से है वह चाहे दुःखरूप में हो या सुखरूप में। आठ कर्मों की प्रकृतियां पुद्गलविपाका हैं और कुछ जीवविपाका / पुद्गलविपाका उसे कहते हैं जो प्रकृति शरीररूप परिणत हुए पुद्गलपरमाणुओं में अपना फल देती हैं, जैसे कि पांचों शरीर, छः संहनन, छः संस्थान इत्यादि नामकर्म की 37 प्रकृतियां पुद्गलविपाका कहलाती हैं। जो कर्मप्रकृति जीव में ही अपना फल देती है उसे जीवविपाका कहते हैं, जैसे कि 47 घातिकर्मों की प्रकृतियां, वेदनीय, गोत्र, तीर्थंकरनाम तथा त्रसदशक तथा स्थावरदशक इत्यादि नामकर्म की प्रकृतियां जीवविपाका कहलाती हैं / जैसे कोई अनभिज्ञ व्यक्ति औषधियां खाता है। उन से होने वाले हित-अहित को वह नहीं जानता किन्तु उसे विपाककाल में दुःखसुख वेदना पड़ता है। इसी प्रकार कर्मग्रहणकाल में भविष्यत् में होने वाले हित-अहित को नहीं जानता है। परन्तु कर्मविपाककाल में विवश होकर दुःख-सुख को वेदना ही पड़ता है। दार्शनिक दृष्टि से कर्मफलविषयक प्रश्नोत्तर-प्रश्न-कर्म रूपी हैं और दुःखसुख अरूपी हैं। कारण रूपी हो और कार्य अरूपी हो, यह बात मस्तिष्क में तथा हृदय में कैसे जंच सकती है? उत्तर-दुःख और सुख आदि आत्मधर्म हैं। आत्मधर्म होने से आत्मा ही उन का समवायी कारण है। कर्म असमवायी कारण हैं / द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव निमित्त कारण हैं। दुःख-सुख आदि आत्मधर्म हैं, इस की पुष्टि के लिए आगमप्रमाण लीजिए-उत्तराध्ययन सूत्र के २८वें अध्ययन में जीव का लक्षण करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि ....................... जीवो उवओगलक्खणं। नाणेणं च दंसणेणं चेव सुहेण य दुहेण य // 10 // अर्थात् जीव चेतना लक्षण वाला है, ज्ञान-दर्शन सुख और दुःख द्वारा पहचाना जाता है। अतः दुःख-सुख आत्मधर्म हैं। प्रश्न-दुःख यदि आत्मधर्म है तो कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने के पश्चात् दुःखानुभूति क्यों नहीं होती ? यदि होती है तो मुक्त होना व्यर्थ है ? उत्तर-जैसे कार्य के प्रति समवायी कारण अनिवार्यतया अपेक्षित है वैसे ही असमवायी 1. कइविहा णं भंते ! वेयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा वेयणा पण्णत्ता-अल्झोवगमियाय उवक्कमियाय। (प्रज्ञापना सूत्र का 35 वां पद) 24 ] श्री विपाक सूत्रम् [कर्ममीमांसा
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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