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________________ कारण निमित्त कारण भी अपेक्षित हैं। असमवायी कारण तथा निमित्त कारण के बिना अर्थात् इन के सर्वथा अभाव होने पर आत्मा में दुःख अवस्तु है। क्योंकि दुःख तो केवल औदयिक अवस्था में ही होता है। औदयिक भाव के अभाव होने पर दुःख का भी आत्मा में अभाव ही हो जाता है। औदयिक भाव का और दु:ख का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। जहां औदयिक भाव है वहां दुःख है, जहां दु:ख नहीं वहां औदयिक भाव भी नहीं। प्रश्न-सुख भी आत्मधर्म है, आत्मा में सुख समवायी कारण से रहा हुआ है। उपर्युक्त असमवायी कारण कर्म तथा निमित्तकारण के सर्वथा आत्यन्तिक अभाव होने पर दुःख की तरह सुख का भी मुक्तात्मा में अभाव ही हो जाना चाहिए ? इधर मुक्तात्मा में सुख का अभाव होना आगमसम्मत नहीं, क्योंकि आगमपाठ यह है अउलं सुहं संपन्ना उवमा जस्स नत्थि उ।सिद्धाणं सुहरासी सव्वागासे न माएज॥ ऐसी स्थिति इधर कूआं उधर खाई वाली दशा होती है। उत्तर-सुख दो प्रकार का होता है, पहला औदयिक और दूसरा आध्यात्मिक। औदयिक सुख के सहकारी साधन भौतिक पदार्थ हैं / इस सुख के भाजन पुण्यात्मा हैं / मुक्तात्मा में औदयिक सुख का तो दुःख की तरह ही आत्यन्तिक अभाव है, परन्तु आध्यात्मिक सुख अनन्त है। वह सुख एक बार आविर्भूत हो कर फिर सदाकालभावी है। केवलज्ञान व केवलदर्शन की तरह एकरस है, अक्षीण है, अपर्यवसित है, अव्याबाध है। .. प्रश्न-क्या मूर्तिमान पुद्गल अपने आह्लाद, परिताप, अनुग्रह, उपघात आदि गुणों से अमूर्त आत्मा को प्रभावित कर सकता है ? . उत्तर-हां, जो आत्मा कर्म से कथंचित् अभिन्न है उस को पुद्गल अपने प्रभाव से कथंचित् प्रभावित कर सकता है। जैसे सुपथ्य भोजन करने से क्षुधानिवृत्तिजन्य आह्लादकता, .अग्नि, विद्युत, अहिविष आदि के स्पर्श से परिताप। विज्ञान, धृति, स्मृति इत्यादि आत्मधर्म होने से अमूर्त हैं। मदिरापान से विज्ञान का उपघात होता है। विष खाने से धृति का और पिपीलिका (भूरी कीड़ी) खाए जाने से स्मृति का उपघात होता है। जीवातु जैसी औषधि पीयूष आदि पदार्थ सेवन करने से विज्ञान विकसित होता है। विषाक्त शरीर निर्विष, दिल और दिमागी ताक़त को बल देने से उपनेत्र (ऐनक) आदि से अनुग्रह करता है। सिद्धात्मा पर पुद्गल . का कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि वह अशरीरी है। सशरीरी आत्मा पर ही पुद्गल का प्रभाव पड़ सकता है। कर्मविपाक संसारस्थ प्राणी भोगते हैं, अतः अब संसारस्वरूप भी समझना आवश्यकीय है। जब तक किसी के स्वरूप को न समझा जाए तब तक वह पदार्थ हेय या उपादेय कदापि कर्ममीमांसा] . श्री विपाक सूत्रम् [25
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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