________________ नहीं बन सकता है। संसार का स्वरूप-संसार शब्द सम्पूर्वक, सृ गतौ धातु घञ् प्रत्यय से बना हुआ है, जिस का अर्थ होता है-संसरण करना, स्थानान्तर होते रहना। रूपान्तर होते रहना ही संसार का उपलक्षण अर्थ है। यह संसार जन्म, मरण, जरा, रोग, शोक आदि अनन्त दुःखों से भरा हुआ है। उन अनन्त दुःखों के भाजन सकर्मा जीव ही बने हुए हैं। जैन सूत्रकारों ने जिज्ञासुओं की सुविधा के लिए संसार को चार भागों में विभक्त किया है। जैसे कि द्रव्यतः संसार, क्षेत्रतः संसार, कालतः संसार और भावतः संसार। १-चतुर्गति, चौरासी लाख योनि में जन्म धारण करना ही द्रव्यतः संसार है। . 2-14 राजूलोक में परिभ्रमण करना ही क्षेत्रतः संसार है। ३-कायस्थिति, भवस्थिति तथा कर्मस्थिति पूर्ण करना, नाना प्रकार की पर्याय धारण करना ही कालतः संसार है। ४-घनघातिकर्मों का बन्ध तथा उन का उदय ही भावतः संसार है। जो जीव द्रव्यतः संसारी हैं, वे क्षेत्रतः तथा कालतः संसारी अवश्य हैं, परन्तु भावतः संसारी वे हों और न भी हों, जैसे अरिहंत देव। वे घनघाती कर्मों से सर्वथा रहित हैं। सिर्फ भवोपग्राही कर्म शेष हैं, उन से जन्मान्तर की प्राप्ति नहीं होती। यावत् आयुस्थिति है, तावत् मनुष्यपर्याय है, अतः वे द्रव्यतः संसारी हैं, भावतः संसारी नहीं। यहां शंका हो सकती है कि सिद्ध भगवान् को क्षेत्रतः संसारी अवश्य मानना पड़ेगा, क्योंकि सिद्धशिला से ऊपर के क्रोश के छठे भाग में सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। वह स्थान भी 14 राजूलोक के अन्तर्गत ही है, फिर वे असंसारसमावर्तक कैसे रहे ? जब कि उसी स्थान में सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव भी वर्तमान हैं, उन्हें संसारी कहा है ? समाधान-सिद्ध भगवान सदैव अचल हैं, न अपने गुणों से चलित होते हैं और ना ही संसरण करते हैं, अर्थात् स्थानान्तर होते हैं। अत: वे सर्वथा असंसारी ही हैं। तनस्थ एकेन्द्रिय जीवों में घनघाती कर्म विद्यमान हैं, अत: वे सर्वथा संसारी ही हैं जो जीव भावतः संसारी हैं, वे द्रव्यतः, क्षेत्रतः तथा कालतः नियमेन संसारी ही हैं, वस्तुतः वे ही क्लेश के भाजन हैं। एक जन्म में उपार्जित किए हुए पाप कर्म जीव को रोग, शोक, छेदन, भेदन, मारण, पीड़न आदि दुःखपूर्ण दुर्गति में धकेल देते हैं। यदि किसी पुण्ययोग से जीव राजघराने में या श्रेष्ठिकुल में जन्म प्राप्त करता है, तो वहां पर भी वे ही पूर्वकृत पापकर्म उसे पुनः पापोपार्जन करने के लिए प्रेरित करते हैं, जिस से वह पुनः दुःखगर्त में गिर जाता है। 26 ] श्री विपाक सूत्रम् [कर्ममीमांसा