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________________ अधिकता होने पर भी उस के कारण गर्व धारण न करना निरभिमानता है। . इसके अतिरिक्त गोत्र के विषय में कहीं पर जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, लाभमद, विद्यामद और ऐश्वर्यमद इन आठ मदों को नीचगोत्र के बन्ध का कारण माना गया है और इन आठों प्रकार के मदों के परित्याग को उच्चगोत्र के बन्ध का हेतु कहा ८-अन्तरायकर्म के बन्धहेतु-दानादि में विघ्न डालना अन्तरायकर्म का 'बन्धहेत है। अर्थात् किसी को दान देने में या किसी से कुछ लेने में अथवा किसी के भोग-उपभोग आदि में बाधा डालना किंवा मन में वैसी प्रवृत्ति लाना अन्तरायकर्म के बन्धहेतु हैं। इस प्रकार सामान्यतया आठों ही कर्मों की मूलप्रकृतियों और बन्ध के प्रकार तथा बन्ध के हेतुओं का विवेचन करने से जैनदर्शन की कर्मसम्बन्धी मान्यता का भलीभाँति बोध हो जाता है। कर्मों के सम्बन्ध में जितना विशद वर्णन जैन ग्रन्थों में है, उतना अन्यत्र नहीं, यह कहना कोई अत्युक्तिपूर्ण नहीं है। जैनवाङ्मय में कर्मविषयक जितना सूक्ष्म पर्यालोचन किया गया है, वह विचारशील दार्शनिक विद्वानों के देखने और मनन योग्य है। अस्तु, कर्म सादि है या अनादि, यह एक बहुत पुराना और महत्त्व का दार्शनिक प्रश्न है, जिस का उत्तर भिन्न-भिन्न दार्शनिक विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धान्त के या विचार के अनुसार दिया है। जैन दर्शन का इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना है कि कर्म सादि भी है और अनादि . भी। व्यक्ति की अपेक्षा वह सादि और प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है। जैन सिद्धान्त कहता है कि प्राणी सोते, जागते, उठते, बैठते और चलते, फिरते किसी न किसी प्रकार की चेष्टाहिलने-चलने की क्रिया करता ही रहता है, जिस से वह कर्म का बन्ध कर लेता है। इस अपेक्षा से कर्म सादि अर्थात् आदि वाला कहा जाता है, परन्तु कर्म का प्रवाह कब से चला ? इसे कोई भी नहीं बता सकता। भविष्य के समान भूतकाल की गहराई भी अनन्त (अन्तरहित) है। अनादि और अनन्त का वर्णन, अनादि और अनन्त शब्द के अतिरिक्त और किसी तरह भी नहीं किया जा सकता। इसीलिए दार्शनिकों ने इसे बीजांकुर या बीजवृक्ष न्याय से उपमित किया 1. विघ्नकरणमन्तरायस्य। (तत्त्वा०६।२६) बन्ध का स्वरूप तथा बन्धहेतुओं का जो ऊपर निरूपण * किया गया है, वह जैनजगत के महान् तत्त्वचिन्तक तथा दार्शनिक पण्डित सुखलाल जी के तत्त्वार्थसूत्र से उद्धृत किया गया है। 2. आठों कर्मों के बन्धहेतु, कर्मग्रन्थों में भिन्न-भिन्न रूप से प्रतिपादन किए हैं। नवतत्त्व में कर्मबन्ध के कारण 85 लिखे हैं। 3. संतई पप्पऽणाइया, अपज्जवसिया विय। ठिइं पडुच्च साइया, सपजवसिया वि य॥ (उत्तराध्ययन, अ० 36, गा० 131) प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [57
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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