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________________ प्रस्तुत सूत्र में -सन्तिहोम-शान्तिहोमम्-इस पद का प्रयोग किया गया है। शान्ति के लिए.किया गया होम शान्तिहोम कहलाता है। होम का अर्थ है-किसी देवता के निमित्त मंत्र पढ़ कर घी, जौ, तिल आदि को अग्नि में डालने का कार्य। प्रस्तुत कथा-संदर्भ में लिखा है कि महेश्वरदत्त पुरोहित शान्ति-होम में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्गों के अनेकानेक बालकों के हृदयगत मांस-पिंडों की आहुति डाला करता था, जो उस के उद्देश्य को सफल बनाने का कारण बनती थी। यहां यह प्रश्न होता है कि शान्तिहोम जैसे हिंसक और अधर्मपूर्ण अनुष्ठान से कार्यसिद्धि कैसे हो जाती थी, अर्थात् हिंसापूर्ण होम का और जितशत्रु नरेश के राज्य और बल की वृद्धि तथा युद्धगत विजयं का परस्पर में क्या सम्बन्ध रहा हुआ है, इस प्रश्न का उत्तर निम्नोक्त है शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि कार्य की सिद्धि में जहां अनेकों कारण उपस्थित होते हैं, वहां देवता भी कारण बन सकता है। देव दो तरह के होते हैं-एक मिथ्यादृष्टि और दूसरे सम्यग्दृष्टि / सम्यग्दृष्टि देव सत्य के विश्वासी और अहिंसा, सत्य आदि अनुष्ठानों में धर्म मानने वाले जब कि मिथ्यादृष्टि देव सत्य पर विश्वास न रखने वाले तथा अधर्मपूर्ण विचारों वाले होते हैं। मिथ्यादृष्टि देवों में भी कुछ ऐसे वाणव्यन्तर आदि देव पाए जाते हैं जो अत्यधिक हिंसाप्रिय होते हैं और मांस आदि की बलि से प्रसन्न रहते हैं। ऐसे देवों के उद्देश्य से जो पशुओं या मनुष्यों की बलि दी जाती है, उस से वे प्रसन्न होते हुए कभी-कभी होम करने वाले व्यक्ति की अभीष्ट सिद्धि में कारण भी बन जाते हैं। फिर भले ही उन देवों की कारणता तथा तज्जन्य कार्यता भीषण दुर्गति को प्राप्त कराने का हेतु ही क्यों न बनती हो। महेश्वरदत्त पुरोहित भी इसी प्रकार के हिंसाप्रिय एवं मांसप्रिय देवताओं का जितशत्रु नरेश के राज्य और बल की वृद्धि के लिए आराधन किया करता था और उन की प्रसन्नता के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्गों के अनेकानेक बालकों के हृदयगत मांसपिंडों की बलि दिया करता था। यह ठीक है कि उस होम द्वारा देवप्रभाव से वह अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर लेता था, परन्तु उसकी यह सावधप्रवृत्तिजन्य भौतिक सफलता उस के जीवन के पतन का कारण बनी और उसी के फलस्वरूप उसे पांचवीं नरक में 17 सागरोपम जैसे बड़े लम्बे काल के लिए भीषणातिभीषण नारकीय यातनाएं भोगने के लिए जाना पड़ा। मर्त्यलोक में भी शासन के आसन पर विराजमान रहने वाले मानव के रूप में ऐसे अनेकानेक दानव अवस्थित हैं, जो मांस और शराब की बलि (रिश्वत) से प्रसन्न होते हैं, और हिंसापूर्ण प्रवृत्तियों में अधिकाधिक प्रसन्न रहते हैं। ऐसे दानव भी प्रायः मांस आदि की बलि लेने पर ही किसी के स्वार्थ को साधते हैं। जब मनुष्य संसार में ऐसी घृणित एवं गर्हित स्थिति प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [495
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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