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________________ उपलब्ध होती है तो दैविक संसार में अन्यायपूर्ण विचारों के धनी देव-दानवों में इस प्रकार : की जघन्य स्थिति का होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में इस कथासंदर्भ के संकलन करने का यही उद्देश्य प्रतीत होता है कि मानव प्राणी नीच स्वार्थ के वश होता हआ ऐसी जघन्यतम हिंसापूर्ण प्रवृत्तियों से सदा अपने को विरत रखे और भूल कर भी अधर्मपूर्ण कामों को अपने जीवन में न लाए, अन्यथा महेश्वरदत्त पुरोहित की भान्ति भीषण नारकीय दुःखों का उपभोग करने के साथ-साथ उसे जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवाहित होना पड़ेगा। हिययउंडए-यहां प्रयुक्त उण्डए यह पद देशीय भाषा का है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ हृदयसम्बन्धी मांसपिण्ड-ऐसा किया है, जो कि कोषानुमत भी है। हिययउंडए त्ति-हृदयमांसपिण्डान्। प्रस्तुत सूत्र में जितशत्रु नरेश के सम्मानपात्र महेश्वरदत्त नामक पुरोहित के जघन्यतम पापाचार का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार उसके भयंकर परिणाम का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं मूल-तते णं से महेसरदत्ते पुरोहिते एयकम्मे 4 सुबहुं पावकम्म समज्जिणित्ता तीसं वाससयाइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा पंचमीए पुढवीए उक्कोसेणं सत्तरससागरोवमट्ठितिए नरगे उववन्ने। छाया-ततः स महेश्वरदत्तः पुरोहितः एतत्कर्मा 4 सुबहु पापकर्म समW त्रिंशतं वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा पञ्चम्यां पृथिव्यामुत्कर्षेण सप्तदशसागरोपमस्थितिके नरके उपपन्नः। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / से-वह / महेसरदत्ते-महेश्वरदत्त / पुरोहिते-पुरोहित। एयकम्मे ४एतत्कर्मा-इस प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, एतत्प्रधान-इन कर्मों में प्रधान, एतद्विद्य-इन्हीं कर्मों की विद्या जानने वाला और एतत्समाचार-इन्हीं पाप कर्मों को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाने वाला। सुबहुं-अत्यधिक। पावकम्मं-पाप कर्म को। समज्जिणित्ता-उपार्जित कर। तीसं वाससयाई-तीन हजार वर्ष की। परमाउं-परमाय को। पालइत्ता-पाल कर-भोग कर।कालमासे-कालावसर में। कालं किच्चाकाल करके। पंचमीए-पांचवीं। पुढवीए-पृथिवी-नरक में। उक्कोसेणं-उत्कृष्ट-अधिक से अधिक। सत्तरससागरोवमट्ठितिए-सप्तदश सागरोपम की स्थिति वाले। नरगे-नरक में। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। मूलार्थ-तदनन्तर एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विज्ञान और एतत्समाचार वह महेश्वरदत्त पुरोहित नाना प्रकार के पापकर्मों का संग्रह कर तीन हजार वर्ष की परमायु 1. इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय के टिप्पण में लिखा जा चुका है। श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध 496 ]
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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