________________ पाल.कर-भोग कर पांचवीं नरक में उत्पन्न हुआ, वहां उसकी स्थिति सतरह सागरोपम की होगी। टीका-"हिंसा" यह संस्कृत और प्राकृत भाषा का शब्द है। इस का अर्थ होता हैमारना, दुःख देना तथा पीड़ित करना। हिंसा करने वाला हिंसक मानव प्राणी हिंसा के आचरण द्वारा जहां इस लोक में अपने जीवन को नष्ट कर देता है, वहां वह अपने परभव को भी बिगाड़ लेता है। तात्पर्य यह है कि शुभ गति का बन्ध करने के स्थान में वह अशुभ गति का बन्ध करता है, और पंडितमरण के स्थान में बालमृत्यु को प्राप्त होता है। महाराज जितशत्रु नरेश.का पुरोहित महेश्वरदत्त भी उन्हीं व्यक्तियों में से एक है जो हिंसामूलक जघन्य प्रवृत्तियों से अपनी आत्मा का सर्वतोभावी पतन करने में अग्रसर होता है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर नीच चाण्डाल के समान कुकृत्य करने वाला राजपुरोहित महेश्वरदत्त अपनी घोरतम हिंसक प्रवृत्ति से विविध भान्ति के पापकर्मों का उपार्जन करके 3000 वर्ष की आयु भोग कर मृत्यु के अनन्तर पूर्वोपार्जित पापकर्मों के प्रभाव से पांचवीं नरक में उत्पन्न हुआ। जोकि उसके हिंसाप्रधान आचरण के सर्वथा अनुरूप ही था। इसी लिए उसे पांचवीं नरक में सतरह सागरोंपम तक भीषण यातनाओं के उपभोग के लिए जाना पड़ा है। _महेश्वरदत्त पुरोहित का पापाचारप्रधान जीव पांचवीं नरक की कल्पनातीत वेदनाओं का अनुभव करता हुआ नरकायु की अवधि समाप्त होने के अनन्तर कहां पर उत्पन्न हुआ, तथा वहां पर उसने अपनी जीवनयात्रा को कैसे बिताया, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं... मूल-से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव कोसंबीए णयरीए सोमदत्तस्स पुरोहितस्स वसुदत्ताए भारियाए पुत्तत्ताए उववन्ने। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो निव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं नामधिजं करेंति। जम्हा णं अम्हं इमे दारए सोमदत्तस्स पुरोहियस्स पुत्ते वसुदत्ताए अत्तए तम्हा णं होउ अम्हं दारए बहस्सतिदत्ते नामेणं। तते णं से बहस्सतिदत्ते दारए पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति। तते णं से बहस्सतिदत्ते उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुप्पत्ते विण्णायपरिणयमेत्ते होत्था, से णं उदयणस्स कुमारस्स पियबालवयंसे यावि होत्था, सहजायए, सहवड्ढिए, सहपंसुकीलियए। तते णं से सयाणीए राया अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते। तते णं से उदयणे कुमारे बहूहिं राईसर० जाव सत्थवाहप्पभितीहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे, कंदमाणे, विलवमाणे सयाणियस्स रण्णो महया इड्ढिसक्कारसमुदएणं णीहरणं करेति 2 त्ता बहूइं प्रथम श्रुतस्कंध ] [497 श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय .