________________ प्राप्त कर सौधर्म नामक देवलोक में उत्पन्न होगा।वहां से च्युत हो कर महाविदेह क्षेत्र में जन्मेगा और वहां चारित्र ग्रहण कर उस के सम्यग् आराधन से सिद्ध पद को प्राप्त करेगा 5 / निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भान्ति कर लेनी चाहिए। ॥अष्टम अध्ययन सम्पूर्ण॥ टीका-संसारी जीवन व्यतीत करने वाले प्राणियों की अवस्था को देख कर एक कर्मवादी सहृदय व्यक्ति दांतों तले अंगुली दबा लेता है, और आश्चर्य से चकित रह जाता है, तथा उन जीवों की मनोगत विचित्रता पर दुःख के अश्रुपात करता है। आज का संसारी जीव क्या चाहता, उत्तर मिलेगा-आनन्द चाहता है, सुख चाहता है और परिस्थितियों की अनुकूलता चाहता है। प्रतिकूलता तो उसे जरा भी सह्य नहीं होती। सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए वह अधिक से अधिक उद्योग करता है, इसके लिए उचितानुचित अथच पुण्य और पाप का भी उसे ध्यान नहीं रहता। तदर्थ यदि उस को किसी जीव की हत्या करनी पडे तो उसे भी निस्संकोच हो कर डालता है। किसी को दुखाने में उसे आनन्द मिले तो दुखाता है, तड़पाने में सुख मिले तो तड़पाता है। सारांश यह है कि-आज के मानव की यह विचित्र दशा है कि वह पुण्य का फल (सुख) तो चाहता है परन्तु पुण्य का आचरण नहीं करता और विपरीत इसके पाप के फल की इच्छा न रखता हुआ भी पापाचरण से पराङ्मुख नहीं होता और पापों का फल भोगते हुए छटपटाता है, बिलबिलाता है। शौरिकदत्त मच्छीमार भी उन्हीं व्यक्तियों में से एक था जो कि पाप करते समय तो किसी प्रकार का विचार नहीं करते और पाप का फल (दुःख) भोगते समय सिर पीटते और रोते चिल्लाते हैं। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से शौरिकदत्त का अतीत और वर्तमान जीवन वृत्तान्त सुन कर गौतम स्वामी को बहुत सन्तोष हुआ और वे शौरिकदत्त की वर्तमान दुःखपूर्ण दशा का कारण तो जान गए परन्तु भविष्य में उस का क्या बनेगा, इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए वे भगवान् से फिर पूछते हैं कि भगवन् ! यह मर कर अब कहां जाएगा? और कहां पर उत्पन्न होगा? तात्पर्य यह है कि घटीयंत्र की तरह संसार में निरन्तर भ्रमण ही करता रहेगा या उस के इस जन्म तथा मरण सम्बन्धी दुःख का कभी अन्त भी होगा?, गौतम स्वामी का यह प्रश्न बड़ा ही रहस्यपूर्ण है। आवागमन के चक्र में पड़ा हुआ जीव सुख और दुःख दोनों का अनुभव करता है। कभी उसे सुख की उपलब्धि होती है और कभी 1. पुण्यस्य फलमिच्छन्ति, पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः। न पापफलमिच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति / यत्नतः॥१॥ 666 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध