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________________ देशान्तर जाने वालों को साथ ले जाते हैं और योग (नई वस्तु की प्राप्ति), क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) द्वारा उन का पालन करते हैं, तथा दुःखियों की भलाई के लिए उन्हें धन देकर व्यापार द्वारा धनवान् बनाते हैं उन्हें सार्थवाह कहते हैं। __“कर्मचक्र में फंसा हुआ मनुष्य चारों ओर से दुःखी होता है। जो मित्र होते हैं वे शत्रु बन जाते हैं और अवसर मिलने पर उस की धनसम्पत्ति को हड़प करके स्वयं धनी होना चाहते हैं। सारांश यह है कि रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं, जिस का यह एक-विजयमित्र ज्वलन्त उदाहरण है। जिस समय सुभद्रा ने पति का मरण और जहाज का डूबना सुना तो वह वृक्ष से कटी हुई लता-शाखा की भांति जमीन पर गिर पड़ी और उसे कोई होश नहीं रही। थोड़ी देर के बाद होश आने पर वह रोने-चिल्लाने और विलाप करने लगी। इसी अवस्था में उस ने पतिदेव का औद्ध-दैहिक कृत्य (मरने के बाद किए जाने वाले कर्म, अन्त्येष्टिकर्म) किया, तथा कुछ समय बाद वह पति-वियोग की चिन्ता में निमग्न हुई मृत्यु को प्राप्त हो गई। दुःखी हृदय ही दुःख का अनुभव कर सकता है। पिपासु को ही पिपासाजन्य दुःख की अनुभूति हो सकती है। इसी भांति पति-वियोग-जन्य दुःख का अनुभव भी असहाय विधवा के सिवा और किसी को नहीं हो सकता। विजयमित्र सार्थवाह के परलोकगमन और घर में रही हुई धन सम्पत्ति के विनाश से सुभद्रा के हृदय को जो तीव्र आघात पहुंचा उसी के परिणामस्वरूप उस की मृत्यु हो गई। प्रस्तुत सूत्र में "-हत्थनिक्खेव-हस्तनिक्षेप-" और "-बाहिरभण्डसारबाह्यभाण्डसार-" इन पदों का प्रयोग किया गया है, आचार्य अभयदेव सूरि ने इन पदों की निम्नोक्त व्याख्या की है ___"-हत्थनिक्खेवं च त्ति हस्ते निक्षेपो न्यासः समर्पणं यस्य द्रव्यस्य तद् हस्तनिक्षेपम्, बाहिरभाण्डसारं च-""-त्ति हस्तनिक्षेपव्यतिरिक्तं च भाण्डसारमिति-" अर्थात् जो हाथ में दूसरे को सौंपा जाए उसे हस्तनिक्षेप कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो धरोहर का नाम हस्तनिक्षेप है। हस्त-निक्षेप के अतिरिक्त जो सारभाण्ड है उसे बाह्यभाण्डसार कहते हैं। तात्पर्य यह है कि किसी की साक्षी के बिना अपने हाथ से दिया गया सारभण्ड हस्तनिक्षेप और किसी की साक्षी से अर्थात् लोगों की जानकारी में दिया गया सारभाण्ड बाह्यभाण्डसार के नाम से विख्यात है। सारभण्ड शब्द से महान् मूल्य वाले वस्त्र, आभूषण आदि पदार्थ गृहीत होते हैं। और पुरातन वस्त्र, पात्र, आदि पदार्थों को असारभण्ड कहा जाता है। या यूं कहें कि-जो पदार्थ भार प्रथम श्रुतस्कंध] ___श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [299
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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