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________________ में लघु-हलके हों, किन्तु मूल्य में अधिक हों, जैसे रत्न, मणि आदि इन्हें सारभाण्ड कहा जाता है, इस के विपरीत जो भार में अधिक एवं मूल्य में अल्प हों जैसे लोहा, पीतल आदि पदार्थ ये असारभाण्ड कहलाते हैं। अब सूत्रकार उज्झितक सम्बन्धी आगे का वृत्तान्त लिखते हैं मूल-तते णं णगरगुत्तिया सुभदं सत्थ० कालगयं जाणित्ता उज्झियगं दारगं सातो गिहातो णिच्छुभंति, णिच्छुभित्ता तं गिहं अन्नस्स दलयंति। तते णं से उज्झियते दारए सयातो गिहातो निच्छूढे समाणे वाणियग्गामे नगरे सिंघाडग० 'जाव पहेसु, जूयखलएसु, वेसियाघरएसु, पाणागारेसु य सुहंसुहेणं विहरइ। तते णं से उज्झितए दारए अणोहट्टिए अनिवारए सच्छंदमती सइरप्पयारे मजप्पसंगी चारजूयवेसदारप्पसंगी जाते यावि होत्था। तते णं से उज्झियते अन्नया कयाती कामज्झयाए गणियाए सद्धिं संपलग्गे जाते यावि होत्था। कामज्झ्याए गणियाए सद्धिं विउलाइं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरति। छाया-ततस्ते नगरगौप्तिकाः सुभद्रां सार्थवाहीं कालगतां ज्ञात्वा उज्झितकं . दारकं स्वस्माद् गृहाद् निष्कासयन्ति निष्कास्य तद्गृहमन्यस्मै दापयन्ति। ततः स उज्झितको दारकः स्वस्माद् गृहाद् निष्कासितः सन् वाणिजग्रामे नगरे श्रृंघाटक यावत् पथेषु द्यूतागारेषु वेश्यागृहेषु पानागारेषु च सुखसुखेन विहरति। ततः स दारकोऽनपघट्टकोऽनिवारक: स्वच्छन्दमतिः स्वैरप्रचारो मद्यप्रसंगी चोरङ्तवेश्यादारप्रसंगी जातश्चाप्यभवत्। ततः स उज्झितकोऽन्यदा कदाचित् कामध्वजया गणिकया सार्द्ध संप्रलग्नो जातश्चाप्यभूत्। कामध्वजया गणिकया सार्द्ध विपुलानुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुंजानो विहरति। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / ते णगरगुत्तिया-वे नगररक्षक-नगर का प्रबन्ध करने वाले। सुभदंसुभद्रा / सत्थ०-सार्थवाही को। कालगतं-मृत्यु को प्राप्त हुई। जाणित्ता-जानकर। उज्झियगं-उज्झितक 1. जाव-यावत्- पद से -तिग-चउक्क-चच्चर-महापह इन पदों का ग्रहण समझना। इन पदों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। ____2. अनिवारकः-नास्ति निवारको, "-मैवं कार्षी-" रित्येवं निषेधको यस्य स तथा, प्रतिषेधकरहित इत्यर्थः। स्वछन्दमतिः, स्ववशा स्ववशेन वा मतिरस्येति स्वछन्दमतिः। अतएव स्वैरपचार:- स्वैरमनिवारिततया प्रचारो यस्य स तथेति भावः। 300 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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