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________________ का। आहेवच्चं-आधिपत्य कर रहा था अर्थात् विजय वर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्राम उसके सुपुर्द किए हुए थे। जाव-यावत्। पालेमाणे-पालन-रक्षण करता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा था। तते णंतदनन्तर / से-एक्काई-वह एकादि। विजयवद्धमाणस्स खेडस्स-विजयवर्द्धमान नामक खेट के। पंच गामसयाई-पांच सौ ग्रामों को। बहूहिं-बहुत से। करेहि-करों से। भरेहि य-उन की प्रचुरता से। विद्धीहि य-द्विगुण आदि ग्रहण करने से। उक्कोडाहि य-रिश्वतों से। पराभवेहि य-दमन करने से। दिजेहि यअधिक ब्याज से। भिजेहि य-हननादि का अपराध लगा देने से। कुन्तेहि य-धन ग्रहण के निमित्त किसी को स्थान आदि के प्रबन्धक बना देने से। लंछपोसेहि य-चोर आदि व्यक्तियों के पोषण से। आलीवणेहि य-ग्रामादि को जलाने से। पंथकोट्टेहि य-पथिकों के हनन (मार-पीट) से। ओवीलेमाणे २-व्यथितपीड़ित करता हुआ। विहम्मेमाणे २-अपने धर्म से विमुख करता हुआ। तजेमाणे २-तिरस्कृत करता हुआ। तालेमाणे २-कशादि से ताड़ित करता हुआ। निद्धणे करेमाणे २-प्रजा को निर्धन-धन रहित करता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा था-अर्थात् प्रजा पर अधिकार जमा रहा था। मूलार्थ-हे गौतम ! इस प्रकार आमंत्रण करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम के प्रति कहा-हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत-वर्ष में शतद्वार नाम का एक समृद्धिशाली नगर था। वहां के लोग बड़ी निर्भयता से जीवन बिता रहे थे।आनन्द का वहां सर्वतोमुखी प्रसार था।उस नगर में धनपति नाम का एक राजा राज्य करता था। उस नगर के 'अदूरसामन्त-कुछ दूरी पर दक्षिण और पूर्व दिशा के मध्य अर्थात् अग्निकोण में विजय-वर्द्धमान नाम का एक खेट-नदी और पर्वत से घिरा हुआ, अथवा धूलि के प्राकार से वेष्टित नगर था, जो कि ऋद्धि समृद्धि आदि से परिपूर्ण था। उस विजयवर्द्धमान खेट का पांच सौ ग्रामों का विस्तार था, उस में एकादि नाम का एक राष्ट्रकूट-राजनियुक्त प्रतिनिधि प्रान्ताधिपति था, जो कि महा अधर्मी और दुष्पप्रत्यानन्दी-परम असन्तोषी, साधुजनविद्वेषी अथवा दुष्कृत करने में ही सदा आनन्द मानने वाला था। वह एकादि विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों का आधिपत्य-शासन और पालन करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। ___तदनन्तर वह एकादि नाम का राजप्रतिनिधि विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों को, करों-महसूलों से, करसमूहों से, किसान आदि को दिए गए धान्य आदि के द्विगुण आदि के ग्रहण करने से, दमन करने से, अधिक ब्याज से, हत्या आदि के अपराध लगा देने से, धन के निमित्त किसी को स्थानादि का प्रबन्धक बना देने से, चोर आदि के पोषण से, ग्राम आदि के दाह-कराने-जलाने से, और पथिकों का घात करने से लोगों 1. जो न तो अधिक दूर और न अधिक समीप हो उसे अदूरसामन्त कहा जाता है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [159
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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