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________________ को स्वाचार से भ्रष्ट करता हुआ तथा जनता को दुःखित, तिरस्कृत (कशादि से) ताड़ित और निर्धन-धन-रहित करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। टीका-मृगापुत्र के पूर्वभव सम्बन्धी किए गए गौतम स्वामी के प्रश्नों का सांगोपांग उत्तर देने के निमित्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया कि गौतम ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में शतद्वार नामक एक नगर था जोकि नगरोचित गुणों से युक्त और पूर्णरूपेण समृद्ध था। उस नगर में महाराज धनपति राज्य किया करते थे। उस नगर के निकट विजयवर्द्धमान नाम का एक खेट था जो कि वैभवपूर्ण और सुरक्षित था, उसका विस्तार पांच सौ ग्रामों का था। तात्पर्य यह है कि जिस तरह आज भी मंडल-जिले के अन्तर्गत अनेकों शहर कस्बे और ग्राम होते हैं। उसी भांति विजयवर्द्धमान खेट में भी पांच सौ ग्राम थे, अर्थात् वह पांच सौ ग्रामों का एक प्रान्त था। खेट के प्रधान अधिकारी का नाम-जिसे वहां के शासनार्थ राज्य की ओर से नियुक्त किया हुआ था, एकादी था। वह पूरा धर्म विरोधी, धार्मिक क्रियानुष्ठानों का प्रतिद्वन्द्वी और साधुपुरुषों का द्वेषी अथवा पूर्ण असन्तोषी-किसी से सन्तुष्ट . न किया जाने वाला था। यहां पर "अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे" पाठगत "जाव-यावत्" पद से - "अधम्माणुए, अधम्मिटे, अधम्मक्खाई, अधम्मपलोई, अधम्मपलजणे, अधम्मसमुदाचारे, . अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे दुस्सीले दुव्वए" [छाया-अधर्मानुगः, अधर्मिष्टः, अधर्माख्यायी, अधर्मप्रलोकी, अधर्मप्ररजनः, अधर्मसमुदाचारः अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन् दुःशील दुर्वृतः] इन पदों का भी ग्रहण कर लेना। ये सब पद उसकी-एकादि की अधार्मिकता बोधनार्थ ही प्रयुक्त किए गए हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये सब पद उसकी अधार्मिकता के व्याख्यारूप ही हैं, जैसे कि (1) अधर्मानुग-अधर्म का अनुसरण करने वाला, अर्थात् जिस में श्रुत और चारित्ररूप धर्म का सद्भाव न हो ऐसे आचार-विचार का अनुयायी व्यक्ति। (2) अधर्मिष्ट-जिस को अधर्म ही इष्ट हो-प्रिय हो, अथवा जो विशेष रूप से अधर्म का अनुसरण करने वाला हो वह अधर्मिष्ट कहलाता है। (3) अधर्माख्यायी-अधर्म का कथन, वर्णन, प्रचार करने वाला। (4) अधर्मप्रलोकी-सर्वत्र अधर्म का प्रलोकन-अवलोकन करने वाला। (5) अधर्मप्ररंजन- अधर्म में अत्यधिक अनुराग रखने वाला। 1. जिस के चारों और धूलि-मिट्टी का कोट बना हुआ हो, ऐसे नगर को खेट के नाम से पुकारा जाता है। 160 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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