________________ के स्थान में त्यागशील मुनिजनों की वेषभूषा से सुशोभित हो रहा है। जहां राग था, वहां त्याग है। जहां मोह था, वहां विराग है। इसी प्रकार खान-पानादि का स्थान अब अधिकांश उपवास आदि तपश्चर्या को प्राप्त है। सागारता ने अब अनगारता का आश्रय प्राप्त किया है। यही उस के जीवन का प्रधान परिवर्तन है। सुबाहुकुमार अहिंसा आदि पांचों महाव्रतों के यथाविधि पालन में सतत जागरूक रहता है। उस में किसी प्रकार का भी अंतिचार-दोष न लगने पाए, इस का उसे पूरा-पूरा ध्यान रहता है। जीवन के बहुमूल्य धन ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए भी वह विशेष सजग रहता है। कारण कि यही जीवन का सर्वस्व है। जिस का यह सुरक्षित है, उस का सभी कुछ सुरक्षित है। संक्षेप में कहें तो सुबाहु मुनि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्राप्त हुए संयम धन को बड़ी दृढ़ता और सावधानी से सुरक्षित किए हुए विचर रहा था। ज्ञान से ही आत्मा अपने वास्तविक उद्देश्य को समझ सकता है और तदनन्तर उसके साधनों से उसे सिद्ध कर लेता है। शास्त्रों में ज्ञान की बड़ी महिमा गाई गई है। श्री भगवती सूत्र में लिखा है कि परलोक में साथ जाने वाला ज्ञान ही है, चारित्र तो इसी लोक में रह जाता है। गीता में लिखा है कि संसार में ज्ञान के समान पवित्र और उस से ऊंची कोई वस्तु नहीं है। "नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते"। अतः छः महीने लगातार श्रम करने पर भी यदि एक पद का अभ्यास हो तब भी उस का अभ्यास नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि ज्ञान का अभ्यास करते-करते अन्तर के पट खुल जाएं, केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाए, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। स्वनामधन्य महामहिम श्री सुबाहुकुमार जी महाराज ज्ञानाराधना की उपयोगिता को एवं अभिमत साध्यता को बहुत अच्छी तरह जानते थे। इसीलिए जहां उन्होंने साधुजीवनचर्या के लिए पूरी-पूरी सावधानी से काम लिया वहां ज्ञानाराधना भी पूरी शक्ति लगा कर की। पूज्य तथारूप स्थविरों के चरणों में रह कर उन्होंने सामायिक आदि 11 अंगों का अध्ययन किया, उन्हें याद किया, उन का भाव समझा और तदनुसार अपना साधुजीवन व्यतीत करना आरम्भ किया। एकादश अंग-जैनवाङ्मय अङ्ग, उपांग, मूल और छेद इन चार भागों में विभक्त है। उन में 11 अङ्ग, 12 उपांग, 4 मूल और 4 छेद सूत्र हैं। इन की कुल संख्या 31 होती है। इन में आवश्यक सूत्र के संकलन से कुल संख्या 32 हो जाती है। ग्यारह अंगों के नाम निम्नोक्त १-आचारांग-इस में श्रमणों-निर्ग्रन्थों के आहार-विहार तथा नियमोपनियमों का 942 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध