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________________ विशेषण माने गए हैं। तब-सुमधुर और मंजुलप्रभणित जो समुल्लापक उनको पुनः पुनः सुनाते हैं-यह अर्थ होगा। सुमधुर-अत्यन्त मधुर-सरस को कहते हैं। मंजुलप्रभणित शब्द मंजुल-चित्ताकर्षक प्रभणित-भणनारम्भ है जिस में ऐसे-इस अर्थ का परिचायक है। समुल्लापक-बालभाषण का नाम है। (2) दूसरे मत में -समुल्लापक-को स्वतन्त्र पद माना है और सुमधुर शब्द को मंजुल-प्रभणित का विशेषण माना गया है, और साथ में प्रभणितशब्द का-मां-मां, इस प्रकार के कर्णप्रिय शब्द-ऐसा अर्थ किया गया है। १४-अधन्ना-अधन्या, अप्रशंसनीया-" अर्थात् जो प्रशंसा के योग्य न हो, वह महिला अधन्या-कहलाती है। तात्पर्य यह है कि स्त्री की प्रशंसा प्रायः सन्तान के कारण ही होती है। संतानविहीन स्त्री आदर का भाजन नहीं बनने पाती-इन्हीं विचारों से किसी जीवित सन्तति को न प्राप्त करने के कारण गंगादत्ता अपने को अधन्या कह रही है। १५-अपुण्णा-अविद्यमानपुण्या अथवा अपूर्णा-अपूर्णमनोरथत्वात्-" अर्थात् जो पुण्य से रहित हो वह अपुण्या कहलाती है। तथा-अपुण्णा-इस पद का संस्कृत प्रतिरूप अपूर्णा-ऐसा भी उपलब्ध होता है। तब-अपुण्णा-इस पद का-जिस के मनोरथों-मानसिक संकल्पों की पूर्ति नहीं होने पाई, वह अपूर्णा कहलाती है, ऐसा अर्थ भी हो सकेगा। १६-अकयपुण्णा-अविहितपुण्या-" अर्थात् जिस ने इस जन्म अथवा पूर्व के जन्मों में पुण्य कर्म का उपार्जन नहीं किया हो वह अकृतपुण्या कही जाती है। १७-जायं-यागम् देवपूजाम्-" अर्थात् याग शब्द देवों की पूजा-इस अर्थ का बोधक है। १८-दायं-पर्वदिवसादौ दानम्-" अर्थात् पर्व के दिवसों में किए जाने वाले दान को दाय कहते हैं / अथवा किसी भी समय पर दीन दुःखियों को अन्नादि का देना या अन्य किसी * सत्कर्म के लिए द्रव्यादि का देना दान कहलाता है। १९-भागम्-लाभांशम्-" अर्थात् मन्दिर के चढ़ावे (वह सामग्री जो किसी देवता को चढ़ाई जाए) से होने वाले लाभ के अंश को भाग कहते हैं। तात्पर्य यह है कि मन्दिर में जो चढ़ावा चढ़ाया जाता है, उस से जो मन्दिर को लाभ होता है, उस लाभांश को भाग कहा जाता है। २०-अक्खयणिहिं-अव्ययं भांडागारम्, अक्षयनिधिं वा मूलधनं येन जीर्णीभूतदेवकुलस्योद्धारः क्रियते-" अर्थात् नष्ट न होने वाले देवभण्डार का नाम अक्षयनिधि है, अथवा-मूलधन (देवद्रव्य) जो कि जीर्ण हुए देवमन्दिर के उद्धार के लिए प्रयुक्त होता है, को भी अक्षयनिधि कहते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [591
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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