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________________ वैद्य के आदेशानुसार लघु वैद्य के द्वारा रोगी का औषधोपचार जितना सुव्यवस्थित रूप से हो सकता है उतना अकेले वैद्य से नहीं हो सकता। आजकल के आतुरालयों-हस्पतालों में भी एक सिवल सर्जन और उसके नीचे अन्य छोटे डॉक्टर होते हैं। इसी भांति उस समय में भी वृद्ध वैद्यों के साथ विशेष अनुभव प्राप्त करने की इच्छा से शिष्य रूप में रहने वाले अन्य लघुवैद्य होते थे जो कि उस समय वैद्यपुत्र के नाम से अभिहित किए जाते थे। इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने वैद्य के साथ वैद्यपुत्र का उल्लेख किया है। यहां पर सूत्रकार ने एकादि राष्ट्रकूट के उपलक्ष्य में उसके रुग्ण शरीर सम्बन्धी औषधोपचार के विधान में सम्पूर्ण चिकित्सा पद्धति का निर्देश कर दिया है। रोगी को रोगमुक्त करने एवं स्वास्थ्ययुक्त बनाने में इसी चिकित्सा-क्रम का वैद्यक ग्रन्थों में उल्लेख किया गया है। पाठकगण प्रस्तुत सूत्रगत पाठों में वर्णित चिकित्सा सम्बन्धी विशेष विवेचन तो वैद्यक ग्रन्थों के द्वारा जान सकते हैं, परन्तु यहां तो उस का मात्र दिग्दर्शन कराया जा रहा है- .. (1) अभ्यंग-तैलादि पदार्थों को शरीर पर मलना अभ्यंग कहलाता है, इसका दूसरा नाम तेल-मर्दन है। सरल शब्दों में कहें तो शरीर पर साधारण अथवा औषधि-सिद्ध तेल की मालिश को अभ्यंग कहते हैं। . (2) उद्वर्तन-अभ्यंग के अनन्तर उद्वर्तन का स्थान है। उबटन लगाने को उद्वर्तन कहते हैं, अर्थात्-तैलादि के अभ्यंग से जनित शरीरगत नो बाह्य स्निग्धता है उस को एवं शरीरगत अन्य मल को दूर करने के लिए जो अनेकविध पदार्थों से निष्पन्न उबटन है उस का अंगोपांगों पर जो मलना है वह भी उद्वर्तन कहलाता है। (3) स्नेहपान-घृतादि स्निग्ध-चिकने पदार्थों के पान को स्नेह-पान कहते हैं। (4) वमन-उलटी या कै का ही संस्कृत नाम वमन है। चरक संहिता के कल्प स्थान में इस की परिभाषा इस प्रकार की गई है:- तत्र दोषहरणमूर्ध्वभागं वमनसंज्ञकम्, अर्थात् ऊर्ध्व भागों द्वारा दोषों का निकालना-मुख द्वारा दोषों का निष्कासन वमन कहलाता है। यद्यपि वैद्यक-ग्रन्थों में वमन विरेचनादि से पूर्व स्वेदविधि का विधान' देखने में आता है और यहां पर उसका उल्लेख वमन तथा विरेचन के अनन्तर किया गया है, इसका कारण यह प्रतीत होता है कि सूत्रकार को इन का क्रम पूर्वक निर्देश करना अभिमत नहीं, अपितु रोग 1. येषां नस्यं विधातव्यं, बस्तिश्चैवापि देहिनाम्। शोधनीयाश्च ये केचित्, पूर्वं स्वेद्यास्तु ते मताः॥१॥ अर्थात्- जिस को नस्य (वह दवा या चूर्णादिं जिसे नाक के रास्ते दिमाग में चढ़ाते हैं) देना हो, बस्तिकर्म करना हो, अथवा वमन या विरेचन के द्वारा शुद्ध करना हो, उसे प्रथम स्वेदित करना चाहिए, उसके शरीर में प्रथम स्वेद देना चाहिए। [बंगसेन में स्वेदाधिकार] 180] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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