________________ "महावीरे जाव समोसरिते" यहां पर उल्लेख किए गए "जाव यावत्" पद से औपपातिक सूत्र के समस्त दशम सूत्र का ग्रहण करना। तथा "जाव परिसा निग्गया" इस आगम पाठ में पठित "जाव-यावत्" पद से औपपातिक सूत्रीय 27 वां समग्र सूत्र ग्रहण करना चाहिए। इस सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने के अनन्तर नगर में उत्पन्न होने वाले आनन्दपूर्ण शुभ वातावरण का, तथा नाना प्रकार के भिन्न-भिन्न वेष बनाकर एवं भिन्न-भिन्न विचारों को लिए हुए नागरिकों का श्रमण भगवान् वीर प्रभु के चरणों में उपस्थित होने का सुन्दर रूपेण अथ च परिपूर्णरूपेण वर्णन किया गया है जो कि अवश्य अवलोकनीय "निग्गते जाव पज्जुवासति" यहां पर दिया गया "जाव-यावत्" पद औपपातिक सूत्र के 28 वें सूत्र से ले कर 32 वें सूत्र पर्यन्त समस्त आगम पाठ का सूचक है। इस पाठ में महाराजा कूणिक- अजातशत्रु का प्रारम्भ से लेकर जिनेंद्र भगवान् महावीर स्वामी के चरणार्विन्दों में पूरे वैभव के साथ उपस्थित होने का सविस्तार वर्णन दिया गया है, जिस का विस्तार भय से यहां उल्लेख नहीं किया गया। - "तते णं से जातिअंधे" इत्यादि पाठ में एक बूढ़े जन्मांध याचक व्यक्ति का वीर प्रभु के चरणों में पहुंचने का जो निर्देश किया है वह भी बड़ा रहस्य पूर्ण है। मानव हृदय की आन्तरिक परिस्थिति कितनी विलक्षण और अंधकार तथा प्रकाश पूर्ण हो सकती है इसका यथार्थ अनुभव किसी अतीन्द्रियदर्शी को ही हो सकता है। __ आज मृगाग्राम नाम के प्रधान नगर में चारों ओर बड़ी चहल पहल दिखाई दे रही है। प्रत्येक नर- नारी का हृदय प्रसन्नता के कारण उमड़ रहा है। प्रत्येक स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध और युवक आनन्द से विभोर होते हुए चन्दनपादप उद्यान की ओर जा रहे हैं। आज हमारे अहोभाग्य से श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का इस नगर में पधारना हुआ है हमें उन के पुण्य दर्शन का अलभ्यलाभ होगा, उन का पुनीत दर्शन चतुर्गति रूप संसार समुद्र से निकाल कर, कर्मजन्य दुःखों से सुरक्षित कर, एवं जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ा कर निष्कर्म बना देने वाला के सन्मुख सविवेक-विवेक पूर्वक स्थित होना कायिक पर्युपासना कहलाती है। वाचिक पर्युपासना-जिनेन्द्र भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित हुए वचनों को सुनकर, भगवन् ! आपकी यह वाणी इसी प्रकार है, यह असंदिग्ध है, यह हमें इष्ट है, इस प्रकार विनयपूर्वक धारण करना वाचिक पर्युपासना है। ____ मानसिक पर्युपासना-सांसारिक बन्धनों से भयरूप संवेग को धारण करना, अर्थात् धार्मिक तीव्र अनुराग को उपलब्ध करना ही मानसिक पर्युपासना कही जाती है। [औपपातिक-सूत्र, पर्युपासनाधिकार] प्रथम'श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [129