________________ सूत्रकार कहते हैं कि मृगाग्राम नगर में वह निवास किया करता था, उसके पास एक सहायक था जो लाठी पकड़ कर उसे चलने में सहायता देता था, पथ-प्रदर्शक का काम किया करता था। उस जन्मान्ध की शारीरिक अवस्था बड़ी घृणित थी, सिर के बाल अत्यन्त बिखरे हुए थे, पागल के पीछे जैसे सैंकड़ों उद्दण्ड बालक लग जाते हैं और उसे तंग करते हैं, वैसे ही उस व्यक्ति को मक्खियों के झुण्डों के झुण्ड घेरे हुए रहते थे जो उस की अन्तर्वेदना को बढ़ाने का कारण बन रहे थे। वह मृगाग्राम के प्रत्येक घर में घूम-घूम कर भिक्षा-वृत्ति द्वारा अपने दुःखी जीवन को जैसे-तैसे चला रहा था। "मच्छियाचडगरपहकरेणं अण्णिजमाणमग्गे-मक्षिकाप्रधानसमूहेनान्वीयमानमार्गः" 1 यह उल्लेख तो उस अन्धपुरुष की अत्यधिक शारीरिक मलिनता का पूरा-पूरा निदर्शक है। मानों वह अन्धपुरुष दरिद्र नारायण की सजीव चलती फिरती हुई मूर्ति ही थी। उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चन्दनंपादप नामा. उद्यान में पधारे, उन के आगमन का समाचार मिलते ही नगर की जनता दर्शनार्थ नगर से उद्यान की ओर प्रस्थित हुई। इधर विजय नरेश भी भगवान् महावीर स्वामी के पधारने की सूचना मिलने पर महाराजा कूणिक की भांति बड़े प्रसन्नचित्त से राजोचित महान् वैभव के साथ नगर से उद्यान की ओर चल पड़े। उद्यान के समीप आ कर तीर्थाधिपति भगवान् वर्धमान के अतिशय विशेष . को देखते हुए विजय नरेश अपने आभिषेक्य हस्तिरत्न-प्रधान हस्ती से उतर पड़े और पांच प्रकार के अभिगम (मर्यादा विशेष, अथवा सम्मान सूचक व्यापार) से श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुए। तदनन्तर भगवान् की तीन बार दाहिनी ओर से आरम्भ कर के प्रदक्षिणा की और तत्पश्चात् वन्दना नमस्कार करके कायिक, वाचिक और मानसिक रूप में उन की पर्युपासना करने लगे। 1. "मच्छियाचडगरपहकरेणं" -मक्षिकाणां प्रसिद्धानां चटकरः प्रधानो विस्तरवान् यः प्रहकरः समूहः स तथा, अथवा-मक्षिकाणां चटकराणां तद् वृन्दानां यः प्रहकरः स तथा तेन "अण्णिजमाणमग्गे" अन्वीयमानमार्गोऽनुगम्यमानमार्गः मलाविलं हि वस्तु प्रायो मक्षिकाभिरनुगम्यत एवेति भावः [वृत्तिकारः] 2. पांच प्रकार के अभिगम सम्मानविशेष का निर्देश शास्त्र में इस प्रकार किया है १-पुष्प, पुष्पमाला आदि सचित्त द्रव्यों का परित्याग करना। २-वस्त्र, आभूषण आदि अचित्त द्रव्यों का परित्याग न करना। ३-एकशाटिका-अस्यूत वस्त्र का उत्तरासंग करना, अर्थात् उस से मुख को ढ़ांपना। ४-भगवान् के दृष्टिगोचर होते ही अंजलीप्रग्रह करना अर्थात् हाथ जोड़ना। ५-मानसिक वृत्तियों को एकाग्र करना। 3. कायिक-पर्युपासना-हस्त और पाद को संकोचते हुए विनय पूर्वक दोनों हाथ जोड़कर भगवान् 128 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय .[ प्रथम श्रुतस्कंध