________________ सकता है। __सूत्रकार ने "कूवियस्स" का जो "सुबहुयस्स" यह विशेषण दिया है, इस से तो चोरपल्ली के रक्षा-साधनों की प्रचुरता का स्पष्टतया परिचय प्राप्त हो जाता है। सारांश यह है कि मोषव्यावर्तकों या कोपाविष्ट व्यक्तियों की चाहे कितनी बड़ी संख्या क्यों न हो फिर भी वे चोरपल्ली पर अधिकार नहीं कर सकते थे और ना ही उसको कुछ हानि पहुंचा सकते थे। इन सब बातों से उस समय की परिस्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। ऐसी अटवियों में लोगों का आना-जाना कितना भयग्रस्त और आपत्ति-जनक हो सकता था, इस का भी अनुमान सहज में ही किया जा सकता है। "अहम्मिए जाव लोहियपाणी" -यहां पठित-जाव-यावत्-पद से "अधम्मिटे, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई, अधम्मपलजणे, अधम्मसीलसमुदायारे, अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ हणछिन्दभिन्दवियत्तए"-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। अधर्मी आदि पदों की व्याख्या निनोक्त है (1) अधर्मी-अधर्म-(पाप) पूर्ण आचरण करने वाला। (2) अधर्मिष्ट-अत्यधिक अधार्मिक अथवा अधर्म ही जिस को इष्ट-प्रिय है। (3) अधर्माख्यायी-अधर्म का उपदेश देना ही जिसका स्वभाव बना हुआ है। (4) अधर्मानुज्ञ या अधर्मानुग-धर्म-शून्य कार्यों का अनुमोदन-समर्थन करने वाला अथवा अधर्म का अनुगमन-अनुसरण करने वाला अर्थात् अधर्मानुयायी। (5) अधर्म-प्रलोकी-अधर्म को उपादेयरूप से देखने वाला अर्थात् अधर्म ही उपादेय-ग्रहण करने योग्य है, यह मानने वाला। (6) अधर्म-प्ररंजन-धर्म-विरुद्ध कार्यों से प्रसन्न रहने वाला। (7) अधर्मशील-समुदाचार-अधर्म करना ही जिसका शील-स्वभाव और समुदाचार-आचार-व्यवहार बना हुआ हो। (8) अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन्-का भाव है, अधर्म के द्वारा ही अपनी वृत्तिआजीविका चलाता हुआ। तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति जहां पापपूर्ण विचारों का धनी था, वहां वह अपनी उदर-पूर्ति और अपने परिवार का पालन पोषण भी हिंसा, असत्य, चौर्यकर्म आदि अधर्मपूर्ण व्यवहारों से ही किया करता था। (9) हनछिन्दभिन्दविकर्तक-इस विशेषण में सूत्रकार ने विजयसेन चोरसेनापति के हिंसक एवं आततायी जीवन का विशेष रूप से वर्णन किया है। वह अपने साथियों से कहा 338 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय .. [प्रथम श्रुतस्कंध