________________ शौरिकपुर नगर के उत्तर और पूर्व दिशा के मध्य में अर्थात् ईशान कोण में मत्स्यबंधपाटक-अर्थात् मच्छियों को मार कर तथा उनके मांस आदि को बेच कर आजीविका करने वालों का एक 'मुहल्ला था। उस मुहल्ले में समुद्रदत्त नाम का एक प्रसिद्ध मत्स्यबन्धमच्छीमार रहा करता था, जो कि महान् अधर्मी तथा पापमय कर्मों में सदा निरत रहने वाला, एवं जिस को प्रसन्न करना अत्यधिक कठिन था। उस की समुद्रदत्ता नाम की भार्या थी जो कि रूप लावण्य में अत्यन्त मनोहर, गुणवती और पतिपरायणा थी। इन के शौरिकदत्त नाम का एक पुत्र था जोकि सुसंगठित शरीर वाला और रूपवान था, उस के सभी अंगोपांग सम्पूर्ण अथच दर्शनीय थे, परन्तु वह भी पिता की तरह मांसाहारी और मच्छियों का व्यापार करता हुआ जीवन व्यतीत किया करता था। -अट्ठमस्स उक्खेवो-यहां प्रयुक्त अष्टम शब्द अष्टमाध्याय का परिचायक है और उत्क्षेप पद प्रस्तावना, उपोद्घात, प्रारम्भ वाक्य-इत्यादि अर्थों का बोधक है। प्रस्तुत में उत्क्षेप पद से संसूचित प्रस्तावनारूप सूत्रांश निम्नोक्त है जति णं भंते ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं सत्तमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, अट्ठमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणंजाव सम्पत्तेणं के अटे पण्णत्ते?अर्थात् हे भगवन् ! यदि दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन का यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! यावत् मोक्ष-सम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के अष्टम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे-यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत पाठ का विवरण प्रथम अध्याय में तथा प्रथम-समुद्रदत्ता के पाठ में पठित -अहीण-के बिन्दु से अभिमत पाठ तथा शौरिकदत्त के सम्बन्ध में पठित -अहीण-के बिन्दु से अभिमत पाठ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। __अब सूत्रकार शौरिकपुर नगर में भगवान् महावीर स्वामी के पधारने और भगवान् गौतम द्वारा देखे गए एक करुणाजनक दृश्य का वर्णन करते हैं मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव गओ, तेणं कालेणं 2 समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे जाव सोरियपुरेणगरे उच्चनीयमज्झिमकुले 1. पाटक नाम मुहल्ले का है, उस पाटक अर्थात् मुहल्ले में अधिक संख्या ऐसे लोगों की थी जो मच्छियों को मार कर अपना निर्वाह किया करते थे, इसीलिए उस मुहल्ले का नाम मत्स्यबन्धों (मच्छी मारने वालों) का पाटक-मुहल्ला पड़ गया था। 622 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध