________________ आत्मज। सोरियदत्ते-शौरिकदत्त / नाम-नाम का। दारए-दारक-बालक। होत्था-था, जोकि। अहीणअन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाला था। मलार्थ-अष्टम अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की भावना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में शौरिकपुर नाम का एक नगर था, वहां शौरिकावतंसक नाम का उद्यान था, उस में शौरिक नामक यक्ष का आयतन-स्थान था, वहां के राजा का नाम शौरिकदत्त था। शौरिकपुर नगर के बाहर ईशान कोण में एक मत्स्यबंधों-मच्छीमारों का पाटक-मुहल्ला था, वहां समुद्रदत्त नाम का मत्स्यबंधमच्छीमार निवास किया करता था जोकि अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था। उसकी समुद्रदत्ता नाम की अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाली भार्या थी, तथा इनके शौरिकदत्त नाम का एक सर्वांगसम्पूर्ण अथच परम सुन्दर बालक था। टीका-चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य-उद्यान में आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य परिवार के साथ विराजमान हो रहे हैं। नगरी की भावुकजनता उनके उपदेशामृत का प्रतिदिन नियमित रूप से पान करती हुई अपने मानवभव को कृतार्थ कर रही है। - आर्य सुधर्मा स्वामी के प्रधान शिष्य श्री जम्बू स्वामी उनके मुखारविन्द से दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन का श्रवण कर उसके परमार्थ को एकाग्र मनोवृत्ति से मनन करने के बाद विनम्र भाव से बोले कि हे भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा प्रतिपादित सप्तम अध्ययन के अर्थ.को तो मैंने आपश्री के मुख से श्रवण कर लिया है, जिस के लिए मैं आपश्री का अत्यन्तात्यन्त कृतज्ञ हूं, परन्तु मुझे अब दुःखविपाक के अष्टम अध्ययन के श्रवण की उत्कण्ठा हो रही है। अतः आप दुःखविपाक के आठवें अध्ययन के अर्थ की कृपा करें, जिसे कि आपने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की पर्युपासना में रहकर श्रवण किया है-इन्हीं भावों को सूत्रकार ने अट्ठमस्स उक्खेवो-इतने पाठ में गर्भित कर दिया है। - जम्बू स्वामी की उक्त प्रार्थना के उत्तर में अष्टम अध्ययन के अर्थ का श्रवण कराने के लिए आर्य सुधर्मा स्वामी प्रस्तुत अध्ययन का "-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं-" इत्यादि पदों से आरम्भ करते हैं। आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! जब इस अवसर्पिणी काल का चौथा आरा बीत रहा था, तो उस समय शौरिकपुर नाम का एक सुप्रसिद्ध और समृद्धिशाली नगर था। वहां विविध प्रकार के धनी, मानी, व्यापारी लोग रहा करते थे। उस नगर के बाहर शौरिकावतंसक नाम का एक विशाल तथा रमणीय उद्यान था। उस में शौरिक नाम का एक बड़ा पुराना और मनोहर यक्षमन्दिर था। नगर के अधिपति का नाम महाराजा शौरिकदत्त था, जो कि पूरा नीतिज्ञ और प्रजावत्सल था। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [621