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________________ मैं चिरकाल से सागरदत्त सार्थवाह-संघनायक के साथ मनुष्यसम्बन्धी उदारप्रधान कामभोगों का उपभोग करती रही हूँ, परन्तु मैंने आज तक एक भी जीवित रहने वाले बालक अथवा बालिका को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया। अत: वे माताएं ही धन्य हैं तथा वे माताएं ही कृतार्थ अथच कृतपुण्य हैं एवं उन्होंने ही मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन को सफल किया है, जिन की स्तनगत दुग्ध में लुब्ध, मधुरभाषण से युक्त, अव्यक्त अथच स्खलित वचन वाली, स्तनमूल से कक्षप्रदेश तक अभिसरणशील, नितान्त सरल, कमल के समान कोमल-सुकुमार हाथों से पकड़ कर अंक-गोदी में स्थापित की जाने वाली और पुनः पुनः सुमधुर, कोमल प्रारंभ वाले वचनों को कहने वाली अपने पेट से उत्पन्न हुई सन्तानें हैं। उन माताओं को मैं धन्य मानती हूँ। ___मैं तो अधन्या, अपुण्या-पुण्यरहित हूं, अकृतपुण्या हूं क्योंकि मैं इन पूर्वोक्त बालसुलभ चेष्टाओं में से एक को भी प्राप्त नहीं कर पाई। अतः मेरे लिए यही श्रेयहितकर है कि मैं कल प्रातःकाल सूर्य के उदय होते ही सागरदत्त सार्थवाह से पूछ कर विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकार लेकर बहुत सी मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों,स्वजनों,सम्बन्धीजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषंड नगर से निकल कर बाहर उद्यान में जहां उम्बरदत्त यक्ष का यक्षायतन-स्थान है वहां जाकर उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना करके और उसके चरणों में नतमस्तक हो इस प्रकार प्रार्थना करूं - हे देवानुप्रिय ! यदि मैं अब जीवित रहने वाले बालक या बालिका को जन्म दूं तो मैं तुम्हारे याग, दान, भाग-लाभ-अंश और देवभंडार में वृद्धि करूंगी।तात्पर्य यह है कि मैं तुम्हारी पूजा किया करूंगी या पूजा का संवर्द्धन किया करूंगी, अर्थात् पहले से अधिक पूजा किया करूंगी।दान दिया करूंगी या तुम्हारे नाम पर दान किया करूंगी या तुम्हारे दान में वृद्धि करूंगी अर्थात् पहले से ज्यादा दान दिया करूंगी। भाग-लाभांश अर्थात् अपनी आय के अंश को दिया करूंगी या तुम्हारे लाभांश-देवद्रव्य में वृद्धि करूंगी। तथा तुम्हारे अक्षयनिधि-देवभंडार मं वृद्धि करूंगी, उसे भर डालूंगी। इस प्रकार उपयाचित-ईप्सित वस्तु की प्रार्थना के लिए उसने निश्चय किया। निश्चय करने के अनन्तर प्रातःकाल सूर्य के उदित होने पर जहां पर सागरदत्त सार्थवाह था वहां पर आई आकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगी-हे स्वामिन्! मैंने तुम्हारे साथ मनुष्यसम्बन्धी सांसारिक सुखों का पर्याप्त उपभोग करते हुए आज तक एक भी जीवित रहने वाले बालक या बालिका को प्राप्त नहीं किया। अत: मैं चाहती हूं . प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [585
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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