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________________ कि यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषंड नगर से बाहर उद्यान में उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना कर उसकी पुत्रप्राप्ति के लिए मनौती मनाऊं? इसके उत्तर में सागरदत्त सार्थवाह ने अपनी गंग रत्ता भार्या से कहा कि-भद्रे ! मेरी भी यही इच्छा है कि किसी प्रकार से भी तुम्हारे जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री उत्पन्न हो। ऐसा कह कर उसने गंगादत्ता के उक्त प्रस्ताव का समर्थन करते हुए उसे स्वीकार किया। टीका-पाटलिपंड नगर में सिद्धार्थ नरेश का शासन था, उसके शासनकाल में प्रजा अत्यन्त सुखी थी। उसी नगर में सागरदत्त नाम का एक प्रसिद्ध व्यापारी रहता था। उस की स्त्री का नाम गंगादत्ता था, जो कि परम सुशीला एवं पतिव्रता थी। इत्यादि वर्णन प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में किया जा चुका है। इसी बात का स्मरण कराते हुए भगवान् महावीर श्री गौतम स्वामी से कहते हैं कि हे गौतम ! जिस समय धन्वन्तरि वैद्य (पूर्ववर्णित) नरक की वेदनाओं को भोग रहा था, उस समय सागरदत्त सार्थवाह की गंगादत्ता भार्या जातनिद्रुतावस्था में थी। उस के जो भी संतान होती वह तत्काल ही विनष्ट हो जाती थी। इस अवस्था में गंगादत्ता को बहुत दुःख हो रहा था। पतिगृह में सांसारिक भोगविलास का उसे पर्याप्त अवसर प्राप्त था, परन्तु किसी जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री की माता बनने का उसे आज तक भी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। वह रात दिन इसी चिन्ता में निमग्न रहती थी। . एक दिन अर्धरात्रि के समय कुटुम्बसम्बन्धी चिन्ता में निमग्न गंगादत्ता अपने गृहस्थजीवन पर दृष्टिपात करती हुई सोचने लगी कि मुझे गृहस्थ जीवन में प्रवेश किये काफ़ी समय व्यतीत हो चुका है। मैं अपने पतिदेव के साथ विविध प्रकार के सांसारिक सुखों का उपभोग भी कर रही हूँ, उनकी मुझ पर पूर्ण कृपा भी है, जो चाहती हूं सो उपस्थित हो जाता है। इतना आनन्द का जीवन होने पर भी मैं आज सन्तान से सर्वथा वंचित हूँ, न पुत्र है न पुत्री। वैसे होने को तो अनेक हुए परन्तु सुख एक का भी न प्राप्त कर पाई। पुत्र न सही पुत्री ही होती, परन्तु मेरे भाग्य में तो वह भी नहीं। धिक्कार हो मेरे इस जीवन को। वे माताएं धन्य हैं, जिन्हें अपने जीवन में नवजात शिशुओं के लालन-पालन का सौभाग्य प्राप्त है, तथा पुत्रों को जन्म देकर उनकी बालसुलभ अद्भुत क्रीड़ाओं से गदगद् होती हुईं सांसारिक आनन्द के पारावार में निमग्न हो कर स्वर्गीय सुख को भी भूल जाती हैं। स्तनपान के लिए ललचायमान शिशु के हावभाव को देखना, उसकी अव्यक्त अथच स्खलित तोतली वाचा से निकले हुए मधुर शब्दों को सुनना, स्तनपान करते-करते कक्ष-काँख की ओर सरकते हुए को अपने हाथों से उठा कर गोद में बिठाना, उनकी अटपटी अथच मंजुलभाषा 586 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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