SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 596
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को सुनने की उत्कण्ठा से उसके साथ उसी रूप में संभाषण आदि करने का सद्भाग्य निःसन्देह उन्हीं माताओं को प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने पुत्र को जन्म दे कर अपनी कुक्षि को सार्थक बनाया है, परन्तु मैं कितनी हतभागिनी हूं, कि जिसे इन में से आज तक कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाया, इस से अधिक मेरे लिए दुःख की और क्या बात हो सकती है ? अस्तु, अब एक उपाय शेष है, जिस पर मुझे विशेष आस्था है, मैं अब उसका अनुसरण करूंगी। संभव है कि भाग्य साथ दे जाए। कल प्रात:काल होते ही सेठ जी से पूछ कर तथा उनसे आज्ञा मिल जाने पर मैं नाना प्रकार की पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य तथा अलंकार आदि पूजा की सामग्री लेकर बाहर उद्यानगत उम्बरदत्त यक्षराज के मन्दिर में जाकर उनकी उक्त सामग्री से विधिवत् पूजा करूंगी और तत्पश्चात् उनके चरणों में पड़कर प्रार्थना करूंगी, मनौती मनाऊंगी कि यदि मेरे गर्भ से जीवित रहने वाले पुत्र अथवा पुत्री का जन्म हो तो मैं आपकी विधिवत् पूजा किया करूंगी, आप के नाम से दान दिया करूंगी और आपके लाभांश में तथा आप के भंडार में वृद्धि कर डालूंगी। सूत्रकार ने -जायं, दायं, भागं-और-अक्खयणिहिं-ये चार द्वितीयांत पद देकर एक अणुवड्ढेस्सामि-यह क्रियापद दिया है। सभी पदों के साथ इसका सम्बन्ध जोड़ने से "-याग-" देवपूजा में वृद्धि करूंगी, अर्थात् जितनी पहले किया करती थी, उस से और अधिक किया करूंगी, या दूसरों से करवाया करूंगी। दान में वृद्धि करूंगी अर्थात् जितना पहले देती थी उससे अधिक दान दिया करूंगी या दूसरों से दान करवाया करूंगी। भागलाभांश में वृद्धि करूंगी अर्थात् उसमें और द्रव्य डाल कर उस की वृद्धि करूंगी या दूसरों से कराऊंगी। अक्षयनिधि की वृद्धि करूंगी या दूसरों से कराऊंगी-" यह अर्थ फलित होता है। परन्तु यदि अणुवड्ढेस्सामि- इस क्रियापद का सम्बन्ध केवल -अक्खयणिहिं-इस पद के साथ. मान लिया जाए और -जायं- तथा-दायं-इन दोनों पदों के आगे-काहिमिकरिष्यामि-इस क्रियापद का अध्याहार कर लिया जाए तो अर्थ होगा-पूजा किया करूंगी, दान दिया करूंगी, एवं भागं-इस पद के आगे दाहिमि-दास्यामि-इस क्रियापद का अध्याहार करने से लाभांश का दान दूंगी अर्थात् अपनी आय का एक अंश दान में दिया करूंगी, ऐसा अर्थ भी निष्पन्न हो सकता है, अस्तु। यह है श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता के हार्दिक विचारों का संक्षिप्त सार, जिसे प्रस्तुत सूत्र में वर्णित किया गया है। गंगादत्ता के इन्हीं विचारों के उतार चढ़ाव में सूर्य देवता उदयाचल पर उदित हो जाते हैं और सेठानी गंगादत्ता अपने शय्यास्थान से उठ खड़ी होती है और सेठ सागरदत्त के पास आकर यथोचित शिष्टाचार के पश्चात् रात्रि में सोचे हुए विचार को ज्यों का प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [587
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy