________________ त्यों सुना देती है। सेठानी गंगादत्ता के विचारों को सुनकर सेठ सागरदत्त उस से सहमत होने के साथसाथ बोले कि प्रिये ! मैं तो तुम से भी पहले इस विचार में निमग्न था कि कोई ऐसा उपाय सोचा जाए कि जिस के अनुसरण से तुम्हारी गोद भरे और तुम्हें चिरकालाभिलषित माता बनने तथा मुझे पिता बनने का सुअवसर प्राप्त हो, अत: मैं तुम्हें इस की आज्ञा देता हूँ, और उस के लिए जिस-जिस वस्तु की तुम को आवश्यकता होगी, उस का सम्पादन भी शीघ्र से शीघ्र कर दिया जाएगा, तुम निश्चिन्त हो कर अपनी कामनापूरक सामग्री जुटाओ। इस कथा-संदर्भ से नारीजीवन के मनोगत संकल्पों का भलीभान्ति परिचय प्राप्त हो जाता है। सन्तान के लिए नारीजगत् में कितनी उत्कण्ठा होती है, तथा उस की प्राप्ति के लिए वह कितनी आतुरा अथच प्रयत्नशीला बनती है, यह भी इस से अच्छी तरह जाना जा सकता प्रश्न-णो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि-(अर्थात्-मैंने किसी भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया)-इस पाठ का, तथा "-जाता जाता दारगा विणिघायमावजंति-" (अर्थात्-जन्म लेते ही उस के बच्चे मर जाया करते थे) इस पाठ के साथ विरोध आता है। प्रथम पाठ का भावार्थ है-सन्तान का सर्वथा अनुत्पन्न होना और दूसरे का अर्थ है-उत्पन्न हो कर मर जाना। यदि उत्पन्न नहीं हुआ तो उत्पन्न हो कर मरना, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? इसलिए ये दोनों पाठ परस्पर विरोधी से प्रतीत होते हैं। उत्तर-नहीं, अर्थात् दोनों पाठों में कुछ भी विरोध नहीं है। प्रथम पाठ में जो यह कहा गया है कि मैंने किसी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया उस का अभिप्राय इतना ही है कि मैंने आज तक किसी बालक को दूध नहीं पिलाया, उस को जीवित अवस्था में नहीं पाया, उस का मुख नहीं चूमा, उस की मीठी-मीठी तोतली बातें नहीं सुनीं और मुझे कोई मां कह कर पुकारने वाला नहीं-इत्यादि तथा उसने उन्हीं माताओं को धन्य बतलाया है जो अपने नवजात शिशुओं से पूर्वोक्त व्यवहार करती हैं, न कि जो जन्म मात्र देकर उन का मुख तक भी नहीं देख पाती, उन्हें धन्य कहा है। इसलिए इन दोनों पाठों में विरोध की कोई आशंका नहीं हो सकती। दूसरी बात यह है कि कहीं पर शब्दार्थ प्रधान होता है, और कहीं पर भावार्थ की प्रधानता होती है। सो यहां पर भावार्थ प्रधान है। भावार्थ की प्रधानता वाले अन्य भी अनेकों उदाहरण शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं, जिनका विस्तारभय से प्रस्तुत में उल्लेख नहीं किया जाता। तथापि मात्र पाठकों की जानकारी के लिए एक उदाहरण दिया जाता है श्री स्थानांग सूत्र के प्रथम उद्देश्य में -चउप्पतिहिते कोहे-(चतुर्षु प्रतिष्ठितः क्रोधः) 588 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध