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________________ क्रंदन-ऊंचे स्वर से रुदन करती हुईं और मस्तक आदि पीट कर हमारा क्या होगा, ऐसा कहकर विलाप करती हुईं-इन अर्थों के परिचायक रोयमाणीओ आदि शब्द हैं। राजमाता श्रीदेवी की मृत्यु का समाचार देने वाली दासियों ने श्री देवी की मृत्यु को "एवं खलु सामी ! सिरीदेवी देवदत्ताए देवीए अकाले चेव जीवियाओ ववरोविया(एवं खलु स्वामिन् ! श्रीदेवी देवदत्तया देव्या अकाले एव जीविताद् व्यपरोपिता)-" इन शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया है। इस कथन से अकालमृत्यु का अस्तित्व प्रमाणित होता है, तथा अकालमृत्यु से कालमृत्यु अपने आप ही सिद्ध हो जाती है। तात्पर्य यह है कि काल और अकाल ये दोनों शब्द एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं, एवं एक दूसरे के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। तब मृत्यु के-कालमृत्यु और अकालमृत्यु ऐसे दो स्वरूप फलित हो जाते हैं। सामान्य रूप से कालमृत्यु का अर्थ अपने समय पर होने वाली मृत्यु है और अकालमृत्यु का व्यवहार नय की अपेक्षा समय के बिना होने वाली मृत्यु है, परन्तु वास्तव में काल और अकाल से क्या अभिप्रेत है और उससे सम्बन्ध रखने वाली मृत्यु का क्या विशेष स्वरूप है, जिसमें कि दोनों का विभेद स्पष्ट हो, यह प्रश्न उपस्थित होता है। उस के सम्बन्ध में किया गया विचार निनोक्त है . आयु दो प्रकार की होती है अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय। जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले ही शीघ्र भोगी जा सके वह अपवर्तनीय और जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले न भोगी जा सके वह अनपवर्तनीय, अर्थात् जिस का भोगफल बंधकालीन स्थिति-मर्यादा से कम हो वह अपवर्तनीय और जिसका भोगफल उक्त मर्यादा के बराबर ही हो वह अनपवर्तनीय आयु कही जाती है। अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय आयु का बन्ध स्वाभाविक नहीं है किन्तु परिणामों के तारतम्य पर अवलम्बित है। भावी जन्म की आयु ‘वर्तमान जन्म में निर्माण की जाती है, उस समय यदि परिणाम मन्द हों तो आयु का बंध शिथिल हो जाता है, जिस से निमित्त मिलने पर बन्धकालीन कालमर्यादा घट जाती है। इसके विपरीत अगर परिणाम तीव्र हों तो आयु का बन्ध गाढ़ हो जाता है, जिससे निमित्त मिलने पर भी बन्धकालीन कालमर्यादा नहीं घटती और न वह एक साथ ही भोगी जा सकती है। जैसे अत्यन्त दृढ़ होकर खड़े हुए पुरुषों की पंक्ति अभेद्य और शिथिल होकर खड़े हुए पुरुषों की पंक्ति भेद्य होती है। अथवा सघन बोए हुए बीजों के पौधे पशुओं के लिए दुष्प्रवेश और विरले-विरले बोए हुए बीजों के पौधे उनके लिए सुप्रवेश होते हैं। वैसे ही तीव्र परिणामजनित गाढ़बन्ध आयु शस्त्र, विष आदि का प्रयोग होने पर भी अपनी नियतकाल-मर्यादा से पहले पूर्ण नहीं होती और मन्द परिणामजनित शिथिल आयु उक्त प्रयोग होते ही अपनी नियत-कालमर्यादा समाप्त प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [739
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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