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________________ के अन्तर्भूत हैं। इस लिए उन का उपशमन भी संभव है। तब इस सारे सन्दर्भ का सारांश यह निकला कि-चोरसेनापति अभनसेन द्वारा पुरिमताल के प्रान्त में जो उपद्रव मचाया जा रहा था अर्थात् जो अराजकता फैल रही थी तथा उसके फलस्वरूप उसे जो दण्ड प्राप्त हुआ, यह सब कुछ उन प्रान्तीय जीवों तथा अभग्नसेन के पूर्वबद्ध निकाचित कर्मों का ही परिणामविशेष था, जोकि एक परम असाध्य व्याधि की तरह किसी उपायविशेष से दूर किए जाने के योग्य नहीं था। तात्पर्य यह है कि तीर्थंकरदेव के अतिशय की क्षेत्र-परिधि से यह बाहर की वस्तु थी। अथवा इस प्रश्न को दूसरे रूप से यूं भी समाहित किया जा सकता है कि वास्तव में उक्त घटनाविशेष का सम्बन्ध तो राजनीति से है इस को उपद्रवविशेष कहा ही नहीं जा सकता। उपद्रवविशेष तो ईति भीति आदि हैं, जिन का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है, वे उपद्रव तीर्थंकर देव के अतिशयविशेष से अवश्य दूर हो जाते हैं परन्तु अपराधियों को दिए गए दण्ड का उपद्रवों में संकलन न होने के कारण, उसका तीर्थंकरदेव के अतिशय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। "-करयल जाव पडिसुणेति-" यहां पठित जाव-यावत पद से विवक्षित पदों का निर्देश पीछे किया जा चुका है। "-एतेणं विहाणेणं-" यहां पठित एतद् शब्द से-भिक्षा को गए भगवान् गौतम स्वामी ने पुरिमताल नगर के राजमार्ग पर जिस विधान-पकार से एक पुरुष को मारे जाने की घटना देखी थी, उस विधान का स्मरण करना ही सूत्रकार को अभिमत है। तथा एतद्-शब्दविषयक अधिक ऊहापोह द्वितीय अध्याय में किया गया है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में अभग्नसेन का। शेष वर्णन सम है। ___-पुरा जाव विहरति- यहां के जाव-यावत् पद से -पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पिडिक्कन्ताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का शब्दार्थ प्रथम अध्याय में किया जा चुका है। श्री गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से जो प्रश्न किया था, उस का उत्तर भगवान ने दे दिया। अब अग्रिम सूत्र में गौतम स्वामी की अपर जिज्ञासा का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूल-अभग्गसेणे णं भंते ! चोरसेणावती कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ ? गोतमा ! अभग्गसेणे चोरसे सत्ततीसं 428 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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