________________ जीव का स्वकृत शुभाशुभ कर्म है। शुभाशुभ कर्म के बिना यह जीव इस जगत् में कोई भी व्यापार नहीं कर सकता। वह शुभ या अशुभ कर्म दो प्रकार का होता है। पहला-सोपक्रम और दूसरा निरुपक्रम। (1) किसी निमित्तविशेष से जिन कर्मों को क्षय किया जा सके वे कर्म सोपक्रम (सनिमित्तक) कहलाते हैं। (2) तथा जिन कर्मों का नाश बिना किसी निमित्त के अपनी स्थिति पूर्ण होने पर ही हो, अर्थात् जो किसी निमित्तविशेष से विनष्ट न हो सकें, उन कर्मों को निरुपक्रम (निर्निमित्तक) कहते हैं। ___तब जो वैरादि उपद्रव सोपक्रमकर्मजन्य होते हैं वे तो तीर्थंकरों के अतिशयविशेष से उपशान्त हो जाते हैं और जो निरुपक्रमकर्मसम्पादित होते हैं वे परम असाध्य रोग की तरह तीर्थंकर देवों की अतिशय-परिधि से बाहर होते हैं। अब इसी विषय को एक उदाहरण के द्वारा समझिए व्याधियां दो प्रकार की होती हैं। एक साध्य और दूसरी असाध्य। जो व्याधि वैद्य के समुचित औषधोपचार से शान्त हो जाए वह साध्य और जिस को शान्त करने के लिए अनुभवी वैद्यों की रामबाण औषधियां भी विफल हो जाएं, वह असाध्य व्याधि है। - तब प्रकृत में सोपक्रमकर्मजन्य विपाक तो साध्यव्याधि की तरह तीर्थंकर महाराज के अतिशय से उपशान्त हो जाता है परन्तु जो विपाक-परिणाम निरुपक्रमकर्मजन्य होता है, वह असाध्य रोग की भान्ति तीर्थंकर देव के अतिशय से भी उपशान्त नहीं हो पाता। इसी भाव को विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिए यदि यूं कह दिया जाए कि निकाचित कर्म से निष्पन्न होने वाला विपाक-फल तीर्थंकरों के अतिशय से नष्ट नहीं होता किन्तु जो विपाक अनिकाचितकर्म-सम्पन्न है उसका उपशमन तीर्थंकरदेव के अतिशय से हो सकता है। यदि ऐसा न हो तो सम्पूर्ण अतिशयसम्पत्ति के स्वामी श्रमण भगवान् महावीर जैसे महापुरुषों पर गोशाला जैसे व्यक्तियों के द्वारा किए गए उपसर्ग प्रहार कभी संभव नहीं हो सकते। इस से यह भली-भान्ति प्रमाणित हो जाता है कि तीर्थंकर देवों का अतिशयविशेष सोपक्रमकर्म की उपशान्ति के लिए है न कि निरुपक्रमकर्म का भी उस से उपशमन होता है। यदि निरुपक्रमकर्म भी तीर्थंकरातिशय से उपशान्त हो जाए तो सारे ही कर्म सोपक्रम ही होंगे, निरुपक्रम कर्म के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता। तथा ईति भीति आदि जितने भी उपद्रव-विशेष हैं ये सब सोपक्रमकर्मसम्पत्ति 1. एक उदाहरण देखिए-सेर प्रमाण की एक ओर रुई पड़ी है दूसरी ओर सेर प्रमाण का लोहा है। वायु के चलने पर रुई तो उड़ जाती है जब कि लोहे का सेर-प्रमाण अपने स्थान में पड़ा रहता है। तीर्थंकरों का अतिशय वायु के तुल्य है। सोपक्रमकर्म-सेर प्रमाण रुई के तुल्य हैं और निरुपक्रमकर्म सेर प्रमाण लोहे के तुल्य प्रथम श्रुतस्कंध] ____ श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [427