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________________ "शिष्यकभ्रमा" और "शीर्षकभ्रमाः" ऐसे दो संस्कृत प्रतिरूप होते हैं। इन दोनों प्रतिरूपों को लक्ष्य में रख कर उक्त पद के तीन अर्थ होते हैं। जैसे कि (1) शिष्य अर्थ को सूचित करने वाला दूसरा शब्द शिष्यक है जिस में शिष्यत्व की भ्रान्ति हो, उसे शिष्यकभ्रम कहते हैं अर्थात् जो विनीत होने के कारण शिष्यतुल्य हैं, उन्हें शिष्यकभ्रम कहा जाता है (२)शरीररक्षक होने के नाते जिन को शरीर के तुल्य समझा जाता है वे शीर्षकभ्रम कहे जाते हैं (3) शिर का रक्षक होने के कारण जिन पर कवच का भ्रम किया जा रहा है अर्थात् जो शिर के कवच की भान्ति शिर की रक्षा करते हैं, वे भी शीर्षकभ्रम कहलाते हैं। - "-धणकणगरयणसन्तसारसावतेजेणं-" इस समस्त पद में धन, कनक, रत्न, सत्-सार, स्वापतेय ये पांच शब्द हैं। धन सम्पत्ति का नाम है। कनक सुवर्ण को कहते हैं / रत्न का अर्थ है-वह छोटा, चमकीला बहुमूल्य खनिज पदार्थ, जिस का उपयोग आभूषणों आदि में जड़ने के लिए होता है। सत्सार शब्द दुनियां की सब से उत्तम वस्तु के लिए प्रयुक्त होता है और स्वापतेय शब्द रुपए पैसे आदि का परिचायक है। महत्थाइं-इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त है ".-महत्थाई-" महाप्रयोजनानि "महग्घाई" महामूल्यानि "महरिहाई" महतां योग्यानि महं वा-पूजामर्हन्ति, महान् वा, अर्हः पूजा येषां तानि तथा, एवंविधानि च कानिचित् केषांचित् योग्यानि भवन्तीत्यत आह "रायारिहाई" राज्ञामुचितानि / अर्थात् जिस का कोई महान् प्रयोजन-उद्देश्य हो उसे महार्थ कहते हैं, और अधिक मूल्य वाले को महाघ कहा जाता है। महार्ह पद के तीन अर्थ होते हैं, जैसे कि- (1) विशेष व्यक्तियों के योग्य वस्तु महार्ह कही जाती है। (2) जो पूजा के योग्य हो उसे महार्ह कहते हैं। (3) जिन की महती पूजा हो वे महार्ह कहलाते हैं। महार्थ, महाघ और महार्ह ये वस्तुएं तो अन्य कई एक के योग्य भी हो सकती हैं, इसलिए महाबल नरेश ने अभग्नसेन की मान प्रतिष्ठा के लिए उसे राजार्ह-राजा लोगों के योग्य उपहार भी प्रेषित किए। ... प्रस्तुत सूत्र में दंडनायक के युद्ध में परास्त होने पर मन्त्रियों के सुझाव से अभग्नसेन के निग्रह के लिए महाबल नरेश ने जो उपाय किया और उस में उन्होंने जो सफलता भी प्राप्त की उस का वर्णन किया गया है। अब अग्रिम सूत्र में महाबल नरेश द्वारा अभग्नसेन के निग्रह के लिए किए जाने वाले उपायविशेष का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से महब्बले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले णगरे एगं महं महतिमहालियं कूडागारसालं करेति, अणेगखंभसतसंनिविटुं पासाइयं 4 / तते णं से महब्बले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले नगरे उस्सुक्कं जाव दसरत्तं पमोयं उग्घोसावेति 2 त्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति 2 एवं वयासी-गच्छह णं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [411
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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