________________ अह दसमं अज्झयणं अथ दशम अध्याय संसार में अनन्त काल से भटकती हुई आत्मा जब विकासोन्मुख होती है, तब यह अनन्त पुण्य के प्रभाव से निगोद में से निकल कर क्रमशः प्रत्येक वनस्पति, पृथ्वी, जलादि योनियों में जन्म लेती हुई द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय तथा नारक, तिर्यंच आदि जीवों की विभिन्न योनियों के सागर को पार करती हुई किसी विशिष्ट पुण्य के बल से मनुष्य के जीवन को उपलब्ध करती है। इस से मानव जीवन कितना दुर्लभ है, तथा कितना महान् है, इत्यादि बातों का भलीभान्ति पता चल जाता है। जैन तथा जैनेतर सभी शास्त्रों तथा ग्रन्थों में मानव जीवन की कितनी महिमा वर्णित हुई है, इसके उत्तर में अनेकानेक शास्त्रीय प्रवचन उपलब्ध होते हैं। पाठकों की जानकारी के लिए कुछ उद्धरण दिए जाते हैं कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुव्वी कयाइ उ। जीवा सोहिमणुपत्ता, आययंति मणुस्सयं // (उत्तराध्ययन सूत्र अ० 3-7) अर्थात् जब अशुभ कर्मों का भार दूर होता है, आत्मा शुद्ध और पवित्र बनता है तब कहीं वह मनुष्य की गति को उपलब्ध करता है। दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं। गाढा य विवागकम्मुणो, समयं गोयम! मा पमायए ॥(उत्तराध्ययन सू० अ० 10-4) अर्थात् संसारी जीवों को मनुष्य का जन्म चिरकाल तक इधर उधर की अन्य योनियों में भटकने के अनन्तर बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, इस का मिलना सहज नहीं है। दुष्कर्म का फल बड़ा ही भयंकर होता है, अतः हे गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद मत कर। नरेषु चक्री त्रिदिवेषु वज्री, मृगेषु सिंहः प्रशमो व्रतेषु। मतों महीभृत्सु सुवर्णशैलो, भवेषु मानुष्यभवः प्रधानम्॥ (श्रावकाचार 10-12) अर्थात् जिस प्रकार मनुष्यलोक में चक्रवर्ती, स्वर्गलोक में इन्द्र, पशुओं में सिंह, व्रतों में प्रशमभाव और पर्वतों में स्वर्णगिरि-मेरू प्रधान है, श्रेष्ठ है, ठीक उसी प्रकार संसार के सब प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [749