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________________ समुदएणं दसरत्तं ठितिवडियं करेति। तते णं से विजए चोरसेणावती तस्स दारगस्स एक्कारसमे दिवसे असणं 4 उवक्खडावेति, मित्तनाति० आमंतेति 2 जाव तस्सेव मित्तनाति पुरओ एवं वयासी-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भगयंसि समाणंसि इमे एयारूवे दोहले पाउब्भूते, तम्हा णं होउ, अम्हं दारए अभग्गसेणे णामेणं। तते णं से अभग्गसेणे कुमारे पंचधाई जाव परिवड्ढति। छाया-तत: विजयश्चोरसेनापतिस्तस्य दारकस्य महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन दशरात्रं स्थितिपतितं करोति / ततः स विजयश्चोरसेनापतिस्तस्य दारकस्यैकादशे दिवसे विपुलमशनम् 4 उपस्कारयति, मित्रज्ञाति आमन्त्रयति, आमन्त्र्य यावत् तस्यैव मित्रज्ञाति पुरत एवमवादीत्-यस्मादस्माकमस्मिन् दारके गर्भगते सति अयमेतद्पो दोहद प्रादुर्भूतः। तस्माद् भवतु अस्माकं दारकोऽभग्नसेनो नाम्ना; ततः सोऽभग्नसेनः कुमारः पंचधात्री० यावत् परिवर्द्धते। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। विजए-विजय नामक। चोरसेणावती-चोरसेनापति। तस्स-उस। दारगस्स-बालक का। महया-महान / इड्ढीसक्कारसमुदएणं-ऋद्धि-वस्त्र सुवर्णादि, सत्कार-सम्मान के समुदाय से। दसरत्तं-दस दिन तक। ठिइवडियं-स्थिति-पतित-कुलक्रमागत उत्सव-विशेष। करेतिकरता है। तते णं-तदनन्तर / से-वह। विजए-विजय। चोरसेणावती-चोरसेनापति। तस्स दारगस्स-उस बालक के। एक्कारसमे-एकादशवें। दिवसे-दिन / विपुलं-महान् / असणं ४-अशन, पान, खादिम तथा 1. -मित्तनाति आमंतेति जाव तस्सेव-यहां के बिन्दु से-णियगसयणसंबन्धि-परियणं-इस पाठ का ग्रहण करना और जाव-यावत् -से "-तओ पच्छा ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्यावेसाई मंगलाई पवराई परिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकिय-सरीरे भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्तनाइनियगसंबन्धिपरिजणेणं सद्धिं तं विउलं असणपाणखाइमसाइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभुंजेमाणे परिभाएमाणे विहरति, जिमिअभुत्तुत्तरागए वि अणं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूए तं मित्तनाइनियगसयणसम्बन्धिपरिजणं विउलेणं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति सम्माणेति सक्कारित्ता सम्माणित्ता तस्सेव मित्तनाइनियगसयणसंबन्धिपरिजणस्स-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ निम्नोक्त है उसके अनन्तर उस ने स्नान किया, बलिकर्म किया, दुष्ट स्वप्नों के फल को निष्फल करने के लिए प्रायश्चित के रूप में मस्तक पर तिलक लगाया और अन्य मांगलिक कार्य किए, शुद्ध तथा सभा आदि में प्रवेश करने के योग्य, मंगल-पवित्र एवं प्रधान-उत्तम वस्त्र धारण किए और मूल्य में अधिक और भार में हलके हों, ऐसे आभूषणों से शरीर को अलंकृत-विभूषित किया, तदनन्तर भोजन के समय पर भोजन-मण्डप (वह मण्डप जहां भोजन का प्रबन्ध किया गया था) में उपस्थित हो कर वह विजय उत्तम एवं सुखोत्पादक आसन पर बैठ गया और उन मित्रों ज्ञातिजनों, निजजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों के साथ विपुल (पर्याप्त) अशन-दाल रोटी आदि, 378 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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