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________________ (3) “-परमसोमणस्सिया- परमसौमनस्यिता, सातिशयप्रमोदभावमापन्ना-" अर्थात् अत्यन्त हर्षातिरेक को प्राप्त परमसौमनस्यिता कही जाती है। (4) हरिसवसविसप्पमाणहियया- हर्षवशविसर्पद्धृदया, हर्षवशाद् विसर्पद् विस्तारयायि हृदयं-मनो यस्याः सा हर्षवशविसर्पद्धदया-" अर्थात् हर्ष के कारण जिस का हृदय विस्तृत-विस्तार को प्राप्त हो गया है। तात्पर्य यह है कि हर्षाधिक्य से जिसका हृदय उछल रहा है, उस स्त्री को हर्ष-वश-विसर्पद-हृदया कहते हैं। (5) धाराहयकलम्बुगं पिव समुस्ससियरोमकूवा-धाराहतकदम्बकमिव समुच्छ्वसितरोमकूपा, धाराभिः मेघवारिधाराभिः आहतं यत् कदम्बपुष्पं तदिव समुच्छ्वसितानि समुत्थितानि रोमाणि कूपेषु-रोमरंध्रेषु यस्याः सा-अर्थात् मेघ-जल की धाराओं से आहत कदम्ब-(देवताड़ नामक वृक्ष के) पुष्प के समान जो हर्ष के कारण रोमाञ्चित हो रही है। "मित्त जाव अण्णाहि-" यहां पठित जाव-यावत् पद से-"णाइ-नियग-सयणसंबन्धि-परियण-महिलाहिं-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। ज्ञाति आदि पदों की व्याख्या द्वितीय अध्याय के टिप्पण में कर दी गई है। "ण्हाया जाव विभसिता-"यहां पठित जाव-यावत् पद से "-कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता, सव्वालंकार-" इन पदों का ग्रहण अभिमत है। कृतबलिकर्मा और कृतकौतुकमंगलप्रायश्चित इन दोनों पदों की व्याख्या द्वितीय अध्याय में कर दी गई है। सर्वालंकारविभूषित पद का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। "सन्नद्धबद्ध जाव आहिँडेमाणी- यहां पठित जाव-यावत् पद से "-वम्मियकवया, उप्पीलियसरासणपट्टिया-से लेकर -गहियाउहपहरणा भरिएहिं फलएहिं-" से लेकर "-चोर पल्लीए सव्वओ समन्ता ओलोएमाणी-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए -सन्नद्धबद्धवम्मियकवया इत्यादि पदों की व्याख्या द्वितीय अध्याय में तथा भरिएहिं इत्यादि पदों की व्याख्या इसी अध्याय में पीछे कर दी गई है। . - प्रस्तुत सूत्र में "-संपुण्णदोहला, संमाणियदोहला, विणीयदोहला, वोच्छिण्णदोहला। संपन्नदोहला-" ये पांच पद प्रयुक्त हुए हैं। यदि इन के अर्थों पर कुछ सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए तो ये समानार्थ से ही जान पड़ते हैं / इन में अर्थ-भेद बहुत कम है, इन का उल्लेख दोहद की विशिष्ट पूर्ति के सूचनार्थ ही दिया हो, ऐसा अधिक सम्भव है। तथापि इन में जो अर्थगत सूक्ष्म भेद रहा है, उसे पदार्थ में दिखा दिया गया है। ___ अब सूत्रकार उत्पन्न बालक की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल-तते णं विजए चोरसेणावती तस्स दारगस्स महया इड्ढीसक्कार प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [377
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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