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________________ परन्तु वास्तव में उन पर होने वाली आसक्ति का नाम ही परिग्रह है। परिग्रह भी एक बड़ा भारी पाप है। परिग्रह मानव की मनोवृत्ति को उत्तरोत्तर दूषित ही करता चला जाता है। और किसी भी प्रकार का स्वपर हिताहित एवं लाभालाभ का विवेक नहीं रहने देता। सामाजिक एवं राष्ट्रीय विषमता, संघर्ष, कलह, एवं अशान्ति का प्रधान कारण परिग्रह ही है। अतः स्व और पर की शान्ति के लिए अमर्यादित स्वार्थवृत्ति एवं संग्रहबुद्धि पर नियन्त्रण का रखना अत्यावश्यक है। इस के अतिरिक्त अपरिग्रहाणुव्रत के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए निम्नोक्त 5 बातों के त्याग का विशेष ध्यान रखना चाहिए १-धान्योत्पत्ति की जमीन को क्षेत्र कहते हैं, वह सेतु-जो कूप के पानी से सींचा जाता है, तथा केतु-वर्षा के पानी से जिसमें धान्य पैदा होता है, इन भेदों से दो प्रकार का होता है। भूमिगृह-भोयरा, भूमिगृह पर बना हुआ घर या प्रासाद, एवं सामान्य भूमि पर बना हुआ घर आदि वास्तु कहलाता है। उक्त क्षेत्र तथा वास्तु की जो मर्यादा कर रखी है, उस का उल्लंघन करना। तात्पर्य यह है कि यदि भूमि दस बीघे की, अथवा दो घर रखने की मर्यादा की है तो उस से अधिक रखना। अथवा मर्यादित क्षेत्र या घर आदि से अधिक क्षेत्र या घर आदि मिलने पर बाड़ या दीवाल वगैरा हटाकर मर्यादित क्षेत्र या घर आदि से मिला लेना। २-घटित (घड़ा हुआ) और अघटित (बिना घड़ा हुआ) सोना, चांदी के परिमाण का एवं हीरा, पन्ना, जवाहरात आदि परिमाण का उल्लंघन करना। राजा की प्रसन्नता से प्राप्त धनादि नियत मर्यादा से अधिक होने के कारण व्रतभंग के भय से पुनः वापिस लेने के लिए किसी दूसरे के पास रख देना। ३-घी, दूध, दही, गुड़, शक्कर आदि धन तथा चावल, गेहूं, मूंग, उड़द, जौ, मक्की आदि धान्य कहे जाते हैं। इन दोनों के विषय में जो मर्यादा की है, उस का उल्लंघन करना। अथवा मर्यादा से अधिक धन-धान्य की प्राप्ति होने पर उसे स्वीकार कर लेना, परन्तु व्रतभंग के भय से उन्हें धान्यादि के बिक जाने पर ले लूंगा, यह सोच कर दूसरे के घर पर रहने देना। ४-द्विपद-सन्तान, स्त्री, दास, दासी, तोता, मैना आदि तथा चतुष्पद-गाय, भैंस, घोड़ा, ऊंट, हाथी आदि के परिमाण का उल्लंघन करना। ५-सोने, चांदी के अतिरिक्त कांसी, पीतल, ताम्बा, लोहा आदि धातु तथा उन से निर्मित बर्तन आदि, आसन, शयन, वस्त्र, कम्बल, तथा बर्तन आदि घर के सामान की जो मर्यादा की है, उस का भंग करना। अथवा नियमित कांसी आदि की प्राप्ति होने पर दो-दो को मिला कर वस्तुओं को बड़ी करा देना और नियमित संख्या कायम रखना। अथवा नियत काल की मर्यादा वाले का व्रतभंग के भय से अधिक कांसी आदि पदार्थों को न खरीद कर 828 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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