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________________ पुनः खरीदने के लिए उनके स्वामी को "-तुम किसी को नहीं देना, अमुक समय के अनन्तर मैं ले लूंगा-" ऐसा कहना। पूर्वोक्त 5 अणुव्रतों के पालन में गुणकारी, उपकारक तथा गुणों को पुष्ट करने वाले व्रत गुणव्रत कहलाते हैं, और वे तीन हैं। उन की नामनिर्देशपूर्वक व्याख्या निम्नोक्त है १-दिक्परिमाणव्रत-दिक् दिशा को कहते हैं। दिशा-ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् इन भेदों से तीन प्रकार की होती है। अपने से ऊपर की ओर को ऊर्ध्व दिशा, नीचे की ओर को अधोदिशा, तथा इन दोनों की बीच की ओर को तिर्यदिशा कहते हैं। तिर्यदिशा केपूर्व पश्चिम, उत्तर और दक्षिण ऐसे चार भेद होते हैं। जिस ओर सूर्य निकलता है वह पूर्व दिशा, जिस ओर छिपता है वह पश्चिम-दिशा, सूर्य की ओर मुंह करके खड़ा होने पर बाएं हाथ की ओर उत्तर दिशा और दाहिने हाथ की ओर दक्षिण दिशा कहलाती है। चार दिशाओं के अतिरिक्त चार विदिशाएं भी होती हैं, जो ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य इन नामों से अभिहित की जाती हैं। उत्तर और पूर्व दिशा के बीच के कोण को ईशान, पूर्व तथा दक्षिण दिशा के बीच के कोण को आग्नेय, दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच के कोण को नैऋत्य तथा पश्चिम और उत्तर दिशा के बीच के कोण को वायव्य कहा जाता है। इन सब ऊर्ध्व, अधः आदि भेदोर्पभेद वाली दिशाओं में गमनागमन करने अर्थात् जाने और आने के सम्बन्ध में जो मर्यादा की जाती है, तात्पर्य यह है कि जो यह निश्चय किया जाता है कि मैं अमुक स्थान से अमुक दिशा में अथवा सब दिशाओं में इतनी दूर से अधिक नहीं जाऊंगा, उस मर्यादा या निश्चय को दिक्परिमाणव्रत कहा जाता है। __ आगे बढ़ना ही जीवन का प्रधान लक्ष्य होता है, परन्तु आगे बढ़ने के लिए चित्त की शान्ति सर्वप्रथम अपेक्षित होती है। चित्त की शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है-इच्छाओं का संकोच। जब तक इच्छाएं सीमित नहीं होंगी तब तक चित्त की शान्ति भी नहीं हो सकती। इस लिए भगवान् ने व्रतधारी श्रावक के लिए दिक्परिमाणव्रत का विधान किया है। इस से कर्मक्षेत्र की मर्यादा बांधी जाती है अर्थात् सीमा निश्चित की जाती है, उस निश्चित सीमा के बाहर जा कर हिंसा, असत्य आदि पापाचरण का त्याग करना इस का प्रधान उद्देश्य रहा करता है। इस के अतिरिक्त दिक्परिमाणव्रत के संरक्षण के लिए निम्नलिखित 5 बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए १-ऊर्ध्व दिशा में गमनागमन करने के लिए जो क्षेत्र मर्यादा में रखा है, उस का उल्लंघन न करना। २-नीची दिशा के लिए किए गए क्षेत्रपरिमाण का उल्लंघन न करना। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [829
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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