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________________ ३-तिर्यदिशा अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशा आदि के लिए गमनागमन का जो परिमाण किया गया है, उस का उल्लंघन न करना। ४-एक दिशा के लिए की गई सीमा को कम कर के उस कम की गई सीमा को दूसरी दिशा की सीमा में जोड़ कर दूसरी दिशा नहीं बढ़ा लेना। इसे उदाहरण से समझिए किसी व्यक्ति ने व्रत लेते समय पूर्व दिशा में गमनागमन करने की मर्यादा 50 कोस की रखी है, परन्तु कुछ दिनों के पश्चात् उस ने सोचा कि मुझे पूर्व दिशा में जाने का इतना काम नहीं पड़ता और पश्चिम दिशा में मर्यादित क्षेत्र से दूर जाने का काम निकल रहा है, इस लिए काम चलाने के लिए पूर्व दिशा में रखे हुए 50 कोश में से कुछ कम कर के पश्चिम दिशा के मर्यादित क्षेत्र को बढ़ा लूं। इस तरह विचार कर एक दिशा के सीमित क्षेत्र को कम कर के दूसरी दिशा के सीमित क्षेत्र में उसे मिला कर उस को नहीं बढ़ाना चाहिए। ... ५-क्षेत्र की मर्यादा को भूल कर मर्यादित क्षेत्र से आगे नहीं बढ़ जाना, अथवा मैं शायद अपनी मर्यादित क्षेत्र की सीमा तक आ चुका हूंगा कि नहीं, ऐसा विचार करने के पश्चात् भी निर्णय किए बिना आगे नहीं बढ़ना चाहिए। ___ ऊपर कहा जा चुका है कि गुणव्रत अणुव्रतों को पुष्ट करने वाले, उन में विशेषता लाने वाले होते हैं / दिक्परिमाणवत अणुव्रतों में विशेषता किस तरह लाता है, इस के सम्बन्ध में किया गया विचार निम्नोक्त है १-श्रावक का प्रथम अणुव्रत अहिंसाणुव्रत है। उस में स्थूल हिंसा का त्याग होता है। सूक्ष्म हिंसा का श्रावक को त्याग नहीं होता और उस में किसी क्षेत्र की मर्यादा भी नहीं होती। सूक्ष्म हिंसा के लिए सभी क्षेत्र खुले हैं / दिक्परिमाणव्रत उसे सीमित करता है, उसे असीम नहीं रहने देता। दिक्परिमाणव्रत से जाने और आने के लिए सीमित क्षेत्र के बाहर की, सूक्ष्म हिंसा भी छूट जाती है। इस तरह दिक्परिमाणव्रत अहिंसाणुव्रत में विशेषता लाता है। २-श्रावक का दूसरा अणुव्रत सत्याणुव्रत है। उस में स्थूल झूठ का त्याग होता है परन्तु सूक्ष्म झूठ का त्याग नहीं होता। वह सभी क्षेत्रों के लिए खुला रहता है। दिक्परिमाणव्रत सत्याणुव्रत के उस सूक्ष्म झूठ की छूट को सीमित करता है, जितना क्षेत्र छोड़ दिया गया है उतने क्षेत्र में सूक्ष्म झूठ के पाप से बचाव हो जाता है। ३-श्रावक का तीसरा अणुव्रत अचौर्याणुव्रत है। इस में स्थूल चोरी का त्याग तो होता है परन्तु सूक्ष्म चोरी का त्याग नहीं होता। इस के अतिरिक्त वह सभी क्षेत्रों के लिए खुली रहती है, दिक्परिमाणव्रत उसे सीमित करता है, उसे अमर्यादित नहीं रहने देता। ४-श्रावक का चतुर्थ अणुव्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इस में परस्त्री आदि का सर्वथा तथा 830 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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