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________________ अकाल शब्द मध्याह्न आदि के समय के लिए प्रयुक्त होता है। रात्रि रात का नाम है। संध्याकाल को विकाल कहते हैं। -उरालाइं-यहां का बिन्दु माणुस्सगाई भोगभोगाई-इन पदों का परिचायक है। तथा-पहाए जाव विभूसिए-यहां का जाव-यावत्-पद-कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकार-इन पदों का संसूचक है। कयबलिकम्मे आदि पदों की व्याख्या द्वितीय अध्याय में की जा चुकी है। तथा सव्वालंकार-का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। -गिण्हावेति 2 जाव एतेणं-यहां पठित जाव-यावत् पद-अढि-मुट्ठि-जाणुकोप्पर-पहार-संभग्ग-महियगत्तं करेति 2 अवओडगबन्धणं करेति करेत्ता-इन पदों का परिचायक है। इन का अर्थ तथा एतद् शब्द से जो अभिमत है उस का वर्णन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। तथा-पोराणाणं जाव विहरति-यहां पठित जाव-यावत् पद से अपेक्षित पाठ का वर्णन प्रथम अध्याय में किया जा चुका है। भगवान् के मुख से इस प्रकार का भावपूर्ण उत्तर सुनने के अनन्तर गौतम स्वामी के चित्त में जो और जिज्ञासा उत्पन्न हुई अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-बहस्सतिदत्ते णं भंते ! पुरोहिते इओ कालगते समाणे कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववजिहिति ? छाया-वृहस्पतिदत्तो भदन्त ! पुरोहित इतः कालगतः कुत्रः गमिष्यति ? कुत्रोपपत्स्यते? पदार्थ-भन्ते !-हे भदन्त !, अर्थात् हे भगवन् ! बहस्सतिदत्ते णं-बृहस्पतिदत्त। पुरोहितेपुरोहित / इओ-यहां से। कालगते-काल को प्राप्त। समाणे-हुआ। कहिं-कहां / गच्छिहिति ?-जाएगा? कहिं-कहां पर। उववजिहिति ?-उत्पन्न होगा ? मूलार्थ-हे भदन्त ! बृहस्पतिदत्त पुरोहित यहां से काल करके कहां जाएगा? और कहां पर उत्पन्न होगा? टीका-गौतम स्वामी की "-बृहस्पतिदत्त पुरोहित पूर्व जन्म में कौन था और उसने ऐसा कौन सा घोर कर्म किया था, जिस का फल उसे इस जन्म में इस प्रकार मिल रहा है?" इस जिज्ञासा को तो भगवान् ने पूर्ण कर दिया परन्तु जो व्यक्ति पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों के फलस्वरूप इस प्रकार की असह्य वेदना का अनुभव करता हुआ मृत्यु को प्राप्त होगा। उस का आगामी जन्म में क्या बनेगा अर्थात् वह आगे कहां और किस रूप को प्राप्त करेगा, इत्यादि बातों के जानने की इच्छा का उत्पन्न होना भी अस्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत इसे जानने की 504 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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