SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 512
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिस जीव ने अपने नीच स्वार्थ के लिए अनेकानेक मानव प्राणियों का वध किया हो वह कर्मसिद्धान्त के अनुसार इसी प्रकार के दण्ड का पात्र होता है। ____"-विण्णायपरिणयमित्ते-" इस पद का अर्थ सम्बन्धी ऊहापोह द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। परन्तु वहां उल्लिखित अर्थ के अतिरिक्त कहीं "-विज्ञातं विज्ञानं तत्परिणतमात्रं यत्र स विज्ञातपरिणतमात्रः परिपक्वविज्ञान इत्यर्थः-" ऐसा अर्थ भी उपलब्ध होता है। अर्थात् विज्ञात यह पद विशेष्य है और परिणतमात्र यह पद विशेषण है। दोनों में बहुव्रीहि समास है। विज्ञात विज्ञान-विशेष ज्ञान का नाम है और परिणतमात्र पद परिपक्व अर्थ का परिचायक है। तात्पर्य यह है कि जिस का विज्ञान परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो चुका है उसे विज्ञातपरिणतमात्र कहते हैं। _ -पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति- यहां के जाव-यावत् पद से "-तंजहाखीर-धातीए 1, मजण०-से लेकर -चंपयपायवे सुहंसुहेणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। -राईसर जाव सत्थवाहप्पभितीहिं-यहां पठित जाव-यावत् पद से - तलवरमाडम्बियकोडुम्बियइब्भसेट्ठि- इन पदों का ग्रहण होता है। तलवर आदि का अर्थ तथा महया०-यहां के बिन्दु से अपेक्षित पाठ की सूचना द्वितीय अध्याय में कर दी गई है। -सव्वट्ठाणेसु-इत्यादि पदों की व्याख्या निनोक्त है.. (1) सर्वस्थान-यह शब्द सब जगह अर्थात् शयनस्थान, भोजनस्थान, मंत्रणा(विचार) स्थान, आय अर्थात् आमदनी और महसूल आदि के स्थानों के लिए प्रयुक्त होता (2) सर्वभूमिका-शब्द का अर्थ है राजमहल की सभी भूमिकाएं अर्थात् भूमिका शब्द मंज़िल का परिचायक है, और टीकाकार अभयदेव सूरि के मतानुसार-राजमहलों की अधिक से अधिक सात भूमिकाएं मानी गई हैं। उन सभी भूमिकाओं में बृहस्पतिदत्त का आना जाना बेरोकटोक था। सव्वभूमियासु त्ति, प्रासादभूमिकासु सप्तभूमिकावसानासु। अथवा -सर्वभूमिका शब्द अमात्य आदि सभी पदों के लिए भी प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह है कि अमात्य मंत्री आदि बड़े से बड़े अधिकारी तक भी उस बृहस्पतिदत्त की पहुँच थी। (3) अन्तःपुर-वह स्थान है जहां राजा की रानियां रहती हैं-रणवास। वेला शब्द उचित अवसर-योग्य समय अर्थात् मिलने आदि के लिए जो समय उचित हो उसका बोध कराता है। अनुचित अवसर अर्थात् भोजन, शयन आदि के अयोग्य समय का परिचायक अवेला शब्द है। प्रथम और तृतीय प्रहर आदि का बोध काल शब्द से होता है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [503
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy