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________________ व्रत को पौषध कहते हैं, परन्तु वास्तव में इस तरह का पौषध देशावकाशिकव्रत ही है। ग्यारहवें (11) व्रत का पौषध तो तब होता है जब चारों प्रकार के आहारों का पूर्णतया त्याग किया जाए और चारों प्रकार के पौषधों को पूरी तरह अपनाया जाए, जो इस तरह नहीं किया जाता प्रत्युत सामान्यरूप से अपनाया जाता है। उस की गणना दशवें देशावकाशिक व्रत में ही होती है। इस के अनुसार तप कर के पानी का उपयोग करने अथवा शरीर से लगाने, मलने रूप तेल का उपयोग करने पर दशवां व्रत ही हो सकता है, ग्यारहवां नहीं। श्रावक अहिंसा, सत्य आदि अणुव्रतों को प्रशस्त बनाने एवं उन में गुण उत्पन्न करने के लिए जो दिक्परिमाणव्रत तथा उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत स्वीकार करता है, उस में अपनी आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार जो मर्यादा करता है, वह जीवन भर के लिए करता है। तात्पर्य यह है कि दिक्परिमाणव्रत और उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत जीवन भर के लिए ग्रहण किए जाते हैं, और इसलिए इन व्रतों को ग्रहण करते समय जो छूट रखी जाती है वह भी जीवन भर के लिए होती है, परन्तु श्रावक ने व्रत लेते समय जो आवागमन के लिए क्षेत्र रखा है तथा भोगोपभोग के लिए जो पदार्थ रखे हैं उन सब का उपयोग वह प्रतिदिन नहीं कर पाता, इसलिए परिस्थिति के अनुसार कुछ समय के लिए उस मर्यादा को घटाया भी जा सकता है अर्थात् गमनागमन के मर्यादित क्षेत्र को और मर्यादित उपभोग्य-परिभोग्य पदार्थों को भी कम किया जा सकता है। उन का कम कर देना ही देशावकाशिक व्रत का उद्देश्य रहा हुआ है। इस शिक्षाव्रत के आराधन से आरम्भ कम होगा और अहिंसा भगवती की अधिकाधिक सुखद साधना सम्पन्न होगी। अतः प्रत्येक श्रावक को देशावकाशिक व्रत के पालन से अपना भविष्य उज्ज्वल, समुज्ज्वल एवं अत्युज्वल बनाने का स्तुत्य प्रयास करना चाहिए। इस के अतिरिक्त देशावकाशिक व्रत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त 5 कार्यों का त्याग आवश्यक है- १-आनयनप्रयोग-दिशाओं का संकोच करने के पश्चात् आवश्यकता उपस्थित होने पर मर्यादित भूमि से बाहर रहे हुए पदार्थ किसी को भेज कर मंगाना। तात्पर्य यह है कि जहां तक क्षेत्र की मर्यादा की है उस से बाहर कोई पदार्थ नहीं मंगाना चाहिए और तृष्णा का संवरण करना चाहिए। दूसरे के द्वारा मंगवाने से प्रथम तो मर्यादा का भंग होता है और दूसरे श्रावक जितना स्वयं विवेक कर सकता है उतना दूसरा नहीं कर सकेगा। २-प्रेष्यप्रयोग-दिशाओं के संकोच करने के कारण व्रती का स्वयं तो नहीं जाना परन्तु अपने को मर्यादा भंग के पाप से बचाने के विचारों से कोई वस्तु वहां पहुंचाने के लिए नौकर को भेजना। पहले भेद में आनयन प्रधान है जब कि दूसरे में प्रेषण। ३-शब्दानुपात-मर्यादा में रखी हुई भूमि के बाहर का कोई कार्य होने पर मर्यादित द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [845
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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